$ads={1}पृथ्वीराज चौहान का इतिहास । पृथ्वीराज चौहान की कहानी
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(Prithviraj Chauhan in Hindi) हिंदू सम्राट पृथ्वीराज चौहान एक ऐसे महान योद्धा थे जिनकी पराक्रम की कहानियां भारतीय इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों से लिखी गई है। पृथ्वीराज चौहान सभी युद्ध कलाओं में निपुण थे। पृथ्वीराज चौहान कई भाषाओं के ज्ञाता भी थे ।
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आइए जानते हैं भारत के वीर योद्धा पृथ्वीराज चौहान के बारे में-
- पृथ्वीराज चौहान ने मात्र 12 वर्ष की छोटी आयु में शेर का शिकार करते समय अपने हाथों से उसका जबड़ा फाड़ दिया था।
- हिंदू सम्राट पृथ्वीराज चौहान पशु पक्षियों से बात करने की कला में भी निपुण थे।
- शब्दभेदी बाण चलाने की कला का ज्ञान अयोध्या नरेश राजा दशरथ के बाद सिर्फ पृथ्वीराज चौहान को ही था।
- पृथ्वीराज चौहान ने 16 वर्ष की आयु में नाहरराय को पराजित करके माडवकर पर विजय पताका लहराई थी।
- पृथ्वीराज चौहान की भुजाओं में इतनी शक्ति थी कि इन्होंने एक ही वार में हाथी के सिर को धड़ से अलग कर दिया था।
- पृथ्वीराज रासो के अनुसार पृथ्वीराज चौहान को घोड़ों और हाथी को नियंत्रित करना बहुत अच्छी तरह से आता था।
- पृथ्वीराज चौहान की माता का नाम कर्पूरी देवी था। यह दिल्ली के शासक अनंगपाल तोमर की एकमात्र पुत्री थी।
- पृथ्वीराज चौहान के पिता का नाम सोमेश्वर चौहान था।
- पृथ्वीराज चौहान का जन्म इनके माता-पिता के विवाह के कई वर्षों के बाद काफी मन्नतो से 1166 ईसवी में हुआ था।
- पृथ्वीराज चौहान जब 11 वर्ष के हुए तब इनके पिता सोमेश्वर चौहान की मृत्यु 1177 ईसवी में हो गई।
- अपने पिता की मृत्यु के बाद 11 वर्ष की उम्र में पृथ्वीराज चौहान अजमेर की राजगद्दी पर विराजमान हुए। छोटी आयु होने के कारण इनकी माता ने शुरुआती कुछ सालों में शासन करने में इनकी मदद की थी।
- पृथ्वीराज चौहान का बचपन काफी सुख सुविधा और वैभव पूर्ण वातावरण में बीता था।
- पृथ्वीराज चौहान ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा सरस्वती कंठाभरण विद्यापीठ से पूरी की थी। मुहम्मद गौरी ने तराइन के द्वितीय युद्ध को जीतने के बाद इस विद्यापीठ को कुतुबुद्दीन के द्वारा पूरी तरह से नष्ट करवा दिया था और वहां एक मस्जिद का निर्माण करवाया था जिसे वर्तमान में अढाई दिन का झोपड़ा नाम की मस्जिद कहा जाता है।
- इतिहासकार दशरथ शर्मा के अनुसार सन् 1180 में पृथ्वीराज चौहान अजमेर की राजगद्दी पर विधिवत रूप से विराजमान हुए।
- पृथ्वीराज चौहान की माता दिल्ली के शासक अनंगपाल तोमर की एक मात्र पुत्री थी अतः अजमेर की राजगद्दी पर बैठने के पश्चात पृथ्वीराज चौहान के नाना ने दिल्ली की राजगद्दी भी इन्हें सौंप दी।
- पृथ्वीराज चौहान ने युद्ध कला और अस्त्र शस्त्र चलाने की शिक्षा अपने गुरु श्री राम जी से प्राप्त की थी।
- पृथ्वीराज चौहान और चंदबरदाई बचपन से ही घनिष्ठ मित्र थे। चंदबरदाई का जन्म सन् 1165 में लाहौर में हुआ था। यह पृथ्वीराज चौहान से एक वर्ष बड़े थे। चंदबरदाई के पिता का नाम राव वेन था। इनके पिता अजमेर के चौहानों के पुरोहित थे। इनके पिता के माध्यम से ही इन्हें राजकुल के संपर्क में आने का अवसर मिला था।
पृथ्वीराज चौहान के राजगद्दी पर बैठने के बाद राज्य विस्तार और संघर्ष
- पृथ्वीराज के चचेरे भाई का नाम नागार्जुन था। पृथ्वीराज चौहान के पिता सोमेश्वर चौहान की मृत्यु के बाद नागार्जुन ने स्वयं को अजमेर की राजगद्दी का उत्तराधिकारी बताकर विद्रोह कर दिया था और गुडापुरा (वर्तमान गुड़गांव के आसपास का क्षेत्र) पर अधिकार कर लिया था। पृथ्वीराज चौहान के समझाने पर भी नागार्जुन नहीं माना तो पृथ्वीराज चौहान ने गुडापुरा पर आक्रमण करके उस पर पुनः अपना अधिकार कर लिया।
- नागार्जुन के विद्रोह को दबाने के बाद पृथ्वीराज चौहान ने भदानक राज्य (वर्तमान मथुरा और अलवर के भाग) पर ध्यान केंद्रित किया। भदानक राज्य पृथ्वीराज चौहान द्वारा शासित दिल्ली और उसके आसपास वाले भाग के लिए खतरा बनते जा रहा था इसीलिए पृथ्वीराज चौहान ने आक्रमण करके सफलतापूर्वक भदानक राज्य पर अधिकार कर लिया।
- मदनपुर शिलालेख से इस बात की पुष्टि होती है कि 1182-1183 के मध्य पृथ्वीराज चौहान ने जेजकाभुक्ती (वर्तमान बुंदेलखंड) के चंदेलों को पराजित कर उसे अपने राज्य में शामिल कर लिया था।
- राजगद्दी पर बैठने के बाद पृथ्वीराज चौहान ने उन सामंतो को भी दंड दिया जिन्होंने सोमेश्वर चौहान की मृत्यु के बाद अवसर देखते हुए विद्रोह कर दिया था और उनकी मां कर्पूरीदेवी की बात को मानने से मना कर दिया था और राज्य के छोटे-छोटे भाग पर अपना अधिकार कर लिया था।
पृथ्वीराज चौहान मुईनुद्दीन चिश्ती का इतिहास
पृथ्वीराज चौहान और मुइनुद्दीन चिश्ती के बारे में कुछ फारसी इतिहासकारों ने अपनी पुस्तक में उल्लेख किया है । फारसी इतिहासकारों ने जैसा वर्णन किया है उसे वैसा ही आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूं।
मिरात ए मसूदी (Mirat-i-Masudi)
मिरात ए मसूदी के अनुसार भारत में मुसलमान साम्राज्य की स्थापना का श्रेय मुईनुद्दीन चिश्ती को जाता है जिनकी अजमेर स्थित दरगाह में हर साल लाखों लोग जाते हैं।
इसके अनुसार " पृथ्वीराज चौहान के शासनकाल में मुईनुद्दीन चिश्ती भारत जाते हैं वहां पहुंचकर पृथ्वीराज चौहान के आध्यात्मिक मार्गदर्शक आजीपाल जोगी को अपना अनुयायी बनाकर उसे मुस्लिम बना देते हैं। परंतु उसका अहंकारी राजा पृथ्वीराज इस्लाम धर्म को कबूल करने से मना कर देता है। इस्लाम धर्म कबूल करने से मना करने के कारण चिश्ती ने शहाबुद्दीन गौरी को दिल्ली पर दूसरा आक्रमण करने के लिए भारत बुलाया और उस अहंकारी शासक को दिल्ली की गद्दी से हटाकर अपने अंजाम तक पहुंचाया तथा जीत हासिल करने के बाद गौरी संपूर्ण भारत को कुतुबुद्दीन ऐबक को सौंपकर वापिस गजनी लौट आया।
अख्बर-उल -अख्यार (Akhbar-ul-akhyar)
जब चिश्ती भारत में आए तब पिथौरा (पृथ्वीराज चौहान) भारत का शासक था।
एक दिन जब चिश्ती के पास उनका एक मुस्लिम अनुयायी आया तो उसने राय पिथौरा (पृथ्वीराज चौहान) की शिकायत की। मुईनुद्दीन चिश्ती ने शिकायत का समाधान करने के लिए कुछ सुझाव पृथ्वीराज चौहान को भेजें परंतु उसने वह सुझाव मानने से मना कर दिए।
चिश्ती ने इसे अपना अपमान समझा और उन्होंने भारत में आक्रमण करने गई मुइजुद्दीन (मुहम्मद गौरी) की सेना को खबर करके पृथ्वीराज को इस्लाम की फौज के हवाले कर दिया।
MA खान द्वारा लिखी गई एक किताब "A legacy of forced conversion imperialism and slavery" मे भी इस घटना का जिक्र किया गया है।
इस पुस्तक के अनुसार सन् 1191 मे तराइन के प्रथम युद्ध में गौरी की हार होती है और 1192 में दूसरे युद्ध के लिए गौरी भारत आता है।
चिश्ती इसी बीच में भारत आते हैं और मुईनुद्दीन चिश्ती इतने बड़े भारत में अजमेर ही जाते हैं जो कि पृथ्वीराज चौहान की राजधानी थी।
इसका कारण संभवत यही हो सकता है कि चिश्ती इसीलिए भारत के अजमेर में आए होंगे ताकि वह ज्यादा से ज्यादा लोगों को इस्लाम धर्म कबूल करवा सके और जब गौरी दूसरे आक्रमण के लिए भारत आए तो वह अपने अनुयायियों से गौरी की मदद करने को कह सके ताकि उसे इस्लाम का शासन कायम करने में कोई परेशानी ना हो।
तराइन के प्रथम युद्ध से पहले भारत की स्थिति
मोहम्मद गौरी के द्वारा भारत पर आक्रमण करने से पहले भारत के अंदर कन्नौज शहर पर अधिकार करने के लिए दो सौ साल से संघर्ष चल रहा था। कन्नौज शहर उस समय गंगा व्यापारिक मार्ग पर आता था और इसके साथ-साथ यह सिल्क मार्ग से भी जुड़ा हुआ था। इन्हीं दो कारणों के कारण कन्नौज एक महत्वपूर्ण आर्थिक केंद्र था।
कन्नौज का संघर्ष 8वी से 9वी शताब्दी के मध्य शुरू हुआ था और मुख्यतः तीन शासकों के मध्य यह लड़ाई चल रही थी।
पाल शासक - इनका शासन भारत के पूर्वी भाग पर था जिसमें वर्तमान बंगाल और उसके आसपास के भाग शामिल थे।
गुर्जर प्रतिहार शासक - इनका शासन भारत के पश्चिमी भाग जैसे अवंती, जालौर और उसके आसपास के क्षेत्र थे।
राष्ट्रकूट शासक - इनका शासन दक्कन क्षेत्र (भारत का दक्षिणी भाग) पर था।
कन्नौज के लिए सबसे पहले पाल राजवंश के राजा धर्मपाल तथा प्रतिहार राजवंश के राजा वत्सराज के मध्य संघर्ष हुआ। इस संघर्ष में वत्सराज विजयी रहे परंतु इस जीत के बाद कुछ ही दिनो मे वत्सराज को राष्ट्रकूट शासक ध्रुव प्रथम ने पराजित कर दिया।
ध्रुव प्रथम जैसे ही कन्नौज को जीतकर अपने राज्य दक्षिण की ओर गए पाल राजवंश के राजा धर्मपाल ने सही मौका देखकर कन्नौज पर आक्रमण करके उसे अपने अधीन कर लिया परंतु यह अधिकार भी ज्यादा समय तक नहीं रहा।
कन्नौज को अपने अधीन करने की जिद ने भारत में इस्लामिक आक्रमणकारियों को आने का मौका दिया क्योंकि कन्नौज शहर के लिए होने वाले संघर्षों ने भारत के उस समय के प्रमुख तीन राजवंशों को अंदर से कमजोर कर दिया था और राजनैतिक रूप से भी भारत विभाजित हो गया। अगर यह तीनों राजवंश मुहम्मद गौरी के आक्रमण के समय साथ रहते तो मुहम्मद गौरी का आक्रमण कभी सफल नहीं हो पाता।
तराईन युद्ध का कारण
मोहम्मद गौरी अफगानिस्तान के घोरी क्षेत्र के घुरीद साम्राज्य का शासक था। सोमनाथ मंदिर पर 17 बार आक्रमण करने वाले महमूद गजनवी के साम्राज्य के बाद अफगानिस्तान में घुरीद साम्राज्य का उदय हुआ।
घुरीद साम्राज्य में दो भाई थे। छोटे भाई का नाम शहाबुद्दीन गौरी था जिसने तराइन के दोनों युद्ध लड़े थे और बड़े भाई का नाम ग्यासुद्दीन गौरी था।
मोहम्मद शहाबुद्दीन गौरी ने सबसे पहले अपने बड़े भाई को अफगानिस्तान और वर्तमान पाकिस्तान के कुछ भागों पर अधिकार करने में मदद दी। इसके बाद मोहम्मद गौरी ने अपना ध्यान भारत पर केंद्रित किया।
भारत की ओर बढ़ते हुए मोहम्मद गौरी ने सबसे पहले सन् 1175 में मुल्तान पर आक्रमण किया और उस पर कब्जा कर लिया। मुल्तान जीतने के बाद गौरी दक्षिण में उच (मुल्तान के दक्षिण की ओर स्थित एक छोटा कस्बा) की ओर बढ़ा तथा रेगिस्तान को पार करते हुए सन् 1178 में चालुक्य राजवंश की राजधानी अन्हिलवाड़ ( वर्तमान पाटन, गुजरात) पहुंचा।
अन्हिलवाड़ से होते हुए मोहम्मद गौरी कायादरा (वर्तमान सिरोही और माउंट आबू के पास का क्षेत्र) पहुंचा यहां पर उस समय के चालुक्य (सोलंकी) राजवंश के युवा शासक मूलराज द्वितीय ने युद्ध में गौरी को बुरी तरह पराजित किया और गौरी की सेना के बहुत से सैनिक मारे गए। इसके बाद मोहम्मद गौरी को फिर से अफगानिस्तान लौटना पड़ा।
अफगानिस्तान लौटने पर मोहम्मद गौरी ने दो वर्षों तक अपनी सैन्य शक्ति को मजबूत किया। सन् 1181 में गौरी अपनी शक्तिशाली सेना के कारण पेशावर पर कब्जा करने में सफल रहा। जम्मू के शासक जयदेव की सहायता से गौरी पूरे पंजाब को जीतने में सफल रहा और सन् 1186 में गजनी वंश के शासक खुसरो मलिक की हत्या करके लाहौर को भी अपने अधीन कर लिया।
इस प्रकार पूरे पश्चिमी पंजाब पर गौरी ने अपना अधिकार कर लिया और अब वह पूर्वी पंजाब की सीमा तक पहुंच गया था जिस पर पृथ्वीराज चौहान का शासन था।
अंततः सन् 1191 मे गौरी खैबर पास से होता हुआ 1200 घुड़सवारों के साथ भारत की ओर बढ़ा। पृथ्वीराज चौहान को गुप्तचरों के माध्यम से गौरी के बारे में पहले ही खबर मिल चुकी थी इसलिए पृथ्वीराज चौहान भी अपनी सेना के साथ युद्ध करने के लिए पूरी तरह तैयार थे।
मोहम्मद गौरी पश्चिमी पंजाब(पाकिस्तान) से वर्तमान पंजाब के बठिंडा शहर पहुंचा और आक्रमण करके यहां के "ताबर ए हिंद" किले पर कब्जा कर लिया। उस समय बठिंडा शहर को ताबर ए हिंद के नाम से भी जाना जाता था। इस शहर को उस समय भारत का प्रवेश द्वार कहा जाता था।
मोहम्मद गौरी की पहले यह योजना थी कि वह "ताबर ए हिन्द" किले को जीतकर पुनः अफगानिस्तान लौट जाएगा परंतु जब गौरी को यह खबर लगी कि पृथ्वीराज चौहान अपनी पूरी सेना के साथ किले पर से उसका कब्जा छुड़ाने आ रहे हैं तो उसने पृथ्वीराज चौहान से युद्ध करने का निर्णय लिया और बस यही पर तराइन के प्रथम युद्ध की नींव रखी गई।
इसके बाद पृथ्वीराज चौहान और मोहम्मद गौरी की सेनाएं वर्तमान हरियाणा राज्य में स्थित तराइन नामक जगह पर मिली।
तराइन का प्रथम युद्ध
- मोहम्मद गौरी की सेना के लेफ्ट साइड में हल्के बख्तरबंद घुडसैनिक तैनात थे। इन घुड़सवारो के पीछे भारी कवच पहने तीरंदाजो की पंक्ति थी।
- मोहम्मद गौरी की सेना के राइट साइड मे भी बिल्कुल इसी तरह की व्यवस्था थी।
- गौरी की सेना के मध्य भाग में सबसे पहली वाली पंक्ति में पैदल चलने वाले तीरंदाज सैनिक थे।
- दूसरी पंक्ति में हाथों में लंबे और नुकीले भाले लिए सिपाहियों की एक टुकड़ी थी।
- तीसरी पंक्ति में भारी बख्तरबंद पैदल सैनिको की टुकड़ी थी।
- इसके अतिरिक्त केंद्र में हल्के बख्तरबंद घुड़सवार और तीरंदाजो की एक-एक रिजर्व बटालियन भी थी। मोहम्मद गौरी स्वयं इस टुकड़ी की कमान संभाले हुए था।
- दूसरी तरफ पृथ्वीराज चौहान की सेना में सबसे आगे हाथी तैनात थे।
- दूसरी पंक्ति में पैदल चलने वाले तीरंदाजो की सैन्य टुकड़ी थी।
- तीसरी पंक्ति में तलवार धारी सैनिक थे।
- चौथी पंक्ति में हल्के कवच पहने घुड़सवारो की सेना थी।
- पृथ्वीराज चौहान की सेना के केंद्र में मुख्यतः हाथी और भारी घुड़सवार सैनिक थे जिसकी कमान स्वयं पृथ्वीराज चौहान के हाथों में थी।
- इसके अतिरिक्त पृथ्वीराज चौहान ने युद्ध के मैदान से कुछ दूरी पर तीरंदाजो की दो टुकड़ियों को तैनात कर रखा था।
- पृथ्वीराज चौहान ने युद्ध को आरंभ किया और अपने हाथियों को मोहम्मद गौरी की सेना की तरफ बढ़ा दिया। हाथियों को आगे बढ़ता देख गौरी के तीरंदाजो ने उन पर तीर चलाना शुरु कर दिया लेकिन पृथ्वीराज चौहान की सेना के हाथी बख्तरबंद थे इस कारण वह आगे बढ़ते रहें।
- हाथियों का आगे बढ़ने से रोकने के लिए गौरी ने भाले वाले सैनिकों को आगे कर दिया और हाथियों पर प्रहार करने का आदेश दिया।
- अपने हाथियों पर भालो के द्वारा प्रहार होते देख पृथ्वीराज चौहान ने अपने सेनापति गोविंद देव के नेतृत्व में केंद्र की सेना को आगे बढ़ने का निर्देश दिया।
- गोविंद देव के नेतृत्व वाली सेना को आगे बढ़ता देख उनका सामना करने के लिए घूरीद तलवारबाज भी आगे आ गए और दोनों ओर से भीषण युद्ध प्रारंभ हुआ।
- दूसरी तरफ केंद्र में पृथ्वीराज चौहान की सेना के हाथी गौरी की सेना के लिए घातक सिद्ध होने लगे जिसके चलते गौरी ने अपने तीरंदाज घुड़सवारो को आगे बढ़कर हाथियों पर हमला करने का निर्देश दिया। लेकिन पृथ्वीराज चौहान ने तुरंत अपने हल्के कवच पहने घुड़सवारो को आगे बढ़ने का निर्देश दिया और हाथियों की रक्षा करने के लिए भेज दिया।
- पृथ्वीराज चौहान के घुड़सवार सैनिक ज्यादा प्रशिक्षित और कुशल थे इसलिए उन्होंने कुछ ही देर में गौरी के घुड़सवारों को पीछे धकेल दिया।
- अपने घुड़सवारो की हार को देख कर कर मोहम्मद गौरी ने अपनी सेना के दाएं और बाएं छोर के तीरंदाज घुडसैनिकों को पृथ्वीराज चौहान की सेना के दाएं और बाएं छोर के घुड़सवारो पर हमला करने के लिए भेज दिया।
- इस प्रकार दोनों ओर के घुड़सैनिकों का आमना-सामना हुआ परंतु यहां भी पृथ्वीराज चौहान के घुड़सैनिक गौरी के घुड़सैनिकों पर भारी पड़े और उन्हें युद्ध भूमि से भागने पर मजबूर कर दिया। गौरी की सेना के घुड़सैनिकों का पीछा करते-करते पृथ्वीराज चौहान के घुड़सैनिक युद्ध भूमि से बाहर निकल गए और इस कारण पृथ्वीराज चौहान की सेना के बाएं और दाएं छोर कमजोर पड़ गए।
- मौके को देखकर गौरी ने भारी कवचधारी घुड़सैनिकों को हमला करने का आदेश दिया लेकिन जैसे ही गौरी के घुड़सैनिक आगे बढ़े, पृथ्वीराज चौहान ने अपने हल्के कवचधारी रिजर्व तीरंदाज घुड़सैनिकों को गौरी के घुड़सवारो को घेरने का आदेश दे दिया।
- शुरुआत में पृथ्वीराज चौहान की सेना के हल्के कवच वाले घुड़सवारो को गौरी की सेना के भारी कवचधारी घुड़सवारो का सामना करने में समस्या हुई परंतु जैसे ही पृथ्वीराज चौहान के घुड़सवारो ने नजदीक से अपने तीरो से गौरी की सेना पर हमला करना शुरू किया तो लड़ाई का रुख बिल्कुल बदल गया।
- अपने घुड़सवारो का शौर्य देखकर उनकी स्थिति को और मजबूत करने के लिए पृथ्वीराज चौहान ने अपनी सेना के केंद्र के घुड़सवारो को गौरी की सेना के बाएं और दाएं छोर पर तैनात घुड़सवारो पर आक्रमण करने के लिए भेज दिया। पृथ्वीराज चौहान के घुड़सवारो ने इतना घातक प्रहार किया कि गौरी की सेना के दाएं और बाएं तरफ के घुड़सवार पूरी तरह नष्ट हो गए।
- केंद्र में अभी भी दोनों सेनाओं के मध्य युद्ध चल रहा था परंतु दाएं और बाएं छोर के घुड़सवारो के नष्ट हो जाने की वजह से गौरी की सेना ज्यादा समय तक नहीं टिक पाई और अंततः पृथ्वीराज चौहान के हाथों मोहम्मद शहाबुद्दीन गौरी की तराइन के प्रथम युद्ध में हार हुई।
तराइन के द्वितीय युद्ध में मोहम्मद गौरी का षड्यंत्र और पृथ्वीराज चौहान की हार
- तराइन के प्रथम युद्ध में जीत के बाद पृथ्वीराज चौहान को यह लगा था कि गौरी अब कभी भी भारत नहीं आएगा परंतु पृथ्वीराज चौहान का यह अनुमान बहुत गलत साबित हुआ।
- अफगानिस्तान पहुंचते से ही गौरी ने एक नए आक्रमण की तैयारी शुरू कर दी और एक लाख की विशाल सेना के साथ फिर से तराइन की ओर चल पड़ा इस बार उसके पास खास किस्म के घोड़े भी थे जो बहुत तेज थे।
- पृथ्वीराज चौहान को इतनी जल्दी एक और हमले की उम्मीद नहीं थी। अपने आसपास के राज्यों से शत्रुता के कारण भी पृथ्वीराज चौहान को कोई मदद नहीं मिल पाई परंतु फिर भी पृथ्वीराज चौहान के पास गौरी का सामना करने के लिए विशाल सेना थी। इस प्रकार पृथ्वीराज चौहान अपनी विशाल सेना के साथ गौरी का सामना करने के लिए तराइन पहुंच गए।
- तराइन पहुंचने के बाद पृथ्वीराज चौहान ने गौरी को एक पत्र भेजा और कहा कि अगर तुम वापस अपने क्षेत्र में चले जाते हो तो तुम्हारी जान को बख्श दिया जाएगा।
- मोहम्मद गौरी ने पृथ्वीराज चौहान को धोखा देने के लिए तुरंत शांति प्रस्ताव पर हामी भर दी मगर इसके साथ ही उसने अपने बड़े भाई ग्यासुद्दीन गौरी से सलाह लेने के लिए थोड़ा समय मांगा।
- गौरी के आश्वासन से पृथ्वीराज चौहान को यह भरोसा हो गया कि गौरी अब इतनी जल्दी हमला नहीं करेगा लेकिन गौरी के दिमाग में एक बहुत बड़ा षड्यंत्र चल रहा था। उसी रात गौरी ने अपने शिविर में सैकड़ों मशाले जलाने का निर्देश दिया और स्वयं अपनी सेना लेकर रात के अंधेरे में शिविर से 3 से 4 किलोमीटर दूर चला गया।
- शिविर में जलती मशाल को देख पृथ्वीराज चौहान और उनकी सेना को लगा कि गौरी की सेना शिविर में ही है।
- शिविर से 3 से 4 किलोमीटर की दूरी पर पहुंचने पर गौरी ने अपनी सेना के तीरंदाजो को चार पंक्तियों में बांट दिया। प्रत्येक पंक्ति में 10 हजार तेज दौड़ने वाले घोड़े थे। बाकी बचे सैनिकों को गौरी ने अपने नेतृत्व में रिजर्व में रखा।
- सुबह होते से ही गौरी की सेना ने चारों दिशाओं से चौहानों के शिविरों को घेर लिया और एकाएक हमला कर दिया।
- चौहानों ने जवाबी आक्रमण करते हुए घुरिदो पर भीषण प्रहार किया। थोड़ी ही देर की लड़ाई के बाद षड्यंत्र के अनुसार गौरी की सेना पीछे हट कर भागने लगी।
- पृथ्वीराज चौहान और उनकी सेना को लगा कि एक बार फिर से उन्होंने गौरी की सेना को परास्त कर दिया है। इसके बाद उन्होंने तराइन के प्रथम युद्ध की गलती को याद करते हुए गौरी की सेना का पीछा किया।
- चौहानों की सेना गौरी की सेना को खदेड़ते खदेड़ते बहुत दूर निकल गई और ऐसा करते हुए पूरा दिन निकल गया।
- शाम होने पर पृथ्वीराज चौहान की सेना बुरी तरह थक गई थी और ठीक इसी समय मोहम्मद गौरी ने अपनी रिजर्व सेना के साथ पृथ्वीराज चौहान की सेना पर पीछे से हमला कर दिया।
- चौहानों ने पीछे से हुए इस हमले का भरपूर जवाब दिया परंतु इस अचानक हुए हमले में बहुत से सैनिक वीरगति को प्राप्त हो गए थे।
- इस हमले से चौहानो की सेना संभल पाती इतनी देर मे भागने का नाटक कर रही गौरी की सेना ने भी पलट कर हमला करना शुरू कर दिया। इसके बाद पृथ्वीराज चौहान की सेना बिल्कुल भी संभल नहीं पाई और अंततः पृथ्वीराज चौहान की तराइन के द्वितीय युद्ध में हार हुई।