राणा सांगा का इतिहास। Rana sanga history in Hindi
महाराणा संग्राम सिंह (1508-1527), जिन्हे राणा सांगा के नाम से भी जाना जाता है, मेवाड़ (राजस्थान) के महान राजपूत योद्धा थे। राणा सांगा को मेवाड़ के महाराणा सिंह के नाम से भी जाना जाता है।
राणा सांगा के पिता का नाम महाराणा रायमल था तथा इनकी माता का नाम रतन कंवर था। राणा सांगा अपने पिता महाराणा रायमल की तीसरी संतान थे।
राणा सांगा, 27 वर्ष की की आयु में अपने पिता महाराणा रायमल की मृत्यु के बाद मेवाड़ की राजगद्दी पर बैठे। मेवाड़ की राजगद्दी के लिए राणा सांगा और उनके दो भाई पृथ्वीराज और जयमल के बीच बहुत लंबा संघर्ष चला किंतु अंततः राणा सांगा मेवाड़ के महाराणा बनने में सफल रहे।
संग्राम सिंह के कुशल शासन के कारण मेवाड़ की समृद्धि अपने उच्चतम स्तर पर पहुंच गई थी। बाबर के आने से पहले राणा सांगा उत्तरी भारत के सबसे अधिक शक्तिशाली शासकों में गिने जाते थे।
राणा सांगा के शरीर पर 80 से ज्यादा घाव थे। राणा सांगा ने अपनी एक आंख अपने बड़े भाई पृथ्वीराज के द्वारा चलाए गए तीर के द्वारा खो दी थी। इसके अलावा इब्राहिम लोदी के साथ लड़े गए खतौली के युद्ध में राणा सांगा ने अपना एक पैर और अपना एक हाथ खो दिया था।
राणा सांगा के इतिहास को अच्छे से समझने के लिए मालवा में होने वाले संघर्ष को जानना आवश्यक है। इसी कारण इस पोस्ट के पहले भाग में आप मालवा के संघर्ष को विस्तृत रूप से समझ सकते हैं।
मेदिनीराय का उदय और महमूद खिलजी।। का मालवा की राजगद्दी के लिए संघर्ष
जैसे ही सुल्तान महमूद खिलजी (1512-1534) मालवा की राजगद्दी पर बैठा उसके तुरंत बाद ही उसे अपने करीबी रिश्तेदारों से कई विद्रोहों का सामना करना पड़ा। इससे परेशान होकर महमूद खिलजी।। को मांडू (मालवा की राजधानी) से भागना पड़ा।
महमूद खिलजी।। (अलाउद्दीन खिलजी से कोई संबंध नहीं) के मांडू से भागने के बाद विद्रोहियों के द्वारा खिलजी के छोटे भाई साहिब खान को मालवा की राजगद्दी पर बैठाया गया।
महमूद खिलजी के इस मुश्किल समय में मालवा के शक्तिशाली राजपूत शासक मेदिनी राय ने महमूद खिलजी की मदद की। मेदिनी राय किसी राज परिवार से संबंध नहीं रखते थे परंतु उन्होंने अपनी राजनीतिक कुशलता और युद्ध में प्रदर्शित की गई वीरता के आधार पर अपनी एक अलग जगह बना ली थी। बाद में इन्हीं मेदिनी राय ने 29 जनवरी 1528 को बाबर की सेना से चंदेरी के दुर्ग(मध्य प्रदेश) को बचाते बचाते वीरगति प्राप्त की थी।
महमूद खिलजी की सहायता करने के लिए मेदिनीराय ने मांडू के किले को चारों तरफ से घेर लिया और घेरने के बाद साहिब खान की सेना को परास्त किया। साहिब खान ने भयभीत होकर गुजरात के शासक मुजफ्फर शाह।। के यहां शरण ली।
इस तरह सुल्तान महमूद खिलजी ने अपने राज्य पर पुनः नियंत्रण प्राप्त कर लिया और मेदिनी राय को राज्य का मुख्यमंत्री(प्रमुख वजीर) नियुक्त किया।
वर्ष 1512-13:
मुस्लिम इतिहासकारों का कहना है कि सुल्तान महमूद खिलजी केवल एक कठपुतली था, जबकि मांडू राज्य की सत्ता मेदिनी राय के हाथ में चली गई थी।
मेदिनी राय की बढ़ती शक्ति और प्रभाव से कुछ राजदरबारियों को जलन हुई और इसी कारण उनके खिलाफ साज़िश करने लगे। चंदेरी के गवर्नर बोहजत खान ने गुजरात में मुजफ्फर शाह के यहां शरण लिए हुए मालवा से निष्कासित शासक साहिब खान को मेदिनी राय के खिलाफ विद्रोह का नेतृत्व करने के लिए आमंत्रित किया। बोहजत खान ने दिल्ली के सुल्तान सिकंदर लोदी (1489-1517), और गुजरात के सुल्तान मुजफ्फर शाह को एक पत्र भेजा, जिसमें कहा गया कि -
"राजपूतों ने मालवा के मुसलमानों पर एक चिंताजनक प्रभुत्व जमा लिया है और मेदिनी राय ने स्वयं को मालवा के सुल्तान के रूप में स्थापित कर लिया है। मेदिनी राय ने राज्य के वफादार अधिकारियों को मारने के भी निर्देश दे दिए है, इसलिए मालवा को बचाने के लिए आपकी मदद की सख्त जरूरत है।"
इसके जवाब में लोदी ने 12,000 घुड़सवारों के साथ बोहजत खान की मदद की। दरअसल सिकंदर लोदी स्वयं भी मालवा पर कब्ज़ा करना चाहता था।
विद्रोहियों ने चंदेरी पहुंचने के बाद "सुल्तान मुहम्मद" की उपाधि के तहत मालवा से निष्कासित शासक साहिब खान को ताज पहनाया।
विद्रोहियों की सहायता के लिए गुजरात के सुल्तान मुजफ्फर ने भी एक बड़ी सेना भेजी थी।
मेदिनी राय ने इसके जवाब में सुल्तान महमूद खिलजी के साथ गुजरात के उन सैनिकों पर आक्रमण किया जो तेजी से मांडू की ओर बढ़ रहे थे। मेदिनी राय के भीषण आक्रमण की वजह से गुजराती सेना हार गई, और पुनः अहमदाबाद लौट गई।
दूसरी ओर मेदिनी राय के साथी सुल्तान महमूद ने चंदेरी की ओर कूच किया, जहां उसका सामना बोहजत खान की सेना से हुआ। बोहजत खान की सेना महमूद की विशाल सेना का प्रतिरोध करने में असमर्थ रही। कठिन परिस्थिति को देखते हुए बोहजत खान और साहिब खान ने इब्राहिम लोदी से और अधिक सेना की मांग की परंतु इब्राहिम लोदी के द्वारा इससे ज्यादा सेना भेजना संभव नहीं था इसीलिए साहिब खान और बोहजत खान दोनों ने महमूद खिलजी के साथ शांति संधि कर ली।
वर्ष 1517:
सुल्तान महमूद खिलजी के कुछ राजदरबारियो ने मेदिनी राय के विरूद्ध महमूद खिलजी को भड़काना शुरू कर दिया। दरअसल मेदिनी राय ने अधिकतर मुस्लिम राजदरबारियों को हिन्दू राजदरबारियों से बदल दिया था।
इससे आशंकित होकर सुल्तान महमूद ने मेदिनी राय को मारने के लिए अपने कुछ विश्वस्त लोगों को भेजा, हालांकि वह इसमें असफल रहा। परंतु मेदिनी राय को बचाने में कई राजपूतों ने अपना बलिदान दिया।
इसके बाद मेदिनी राय ने सुल्तान को यह संदेश भिजवाया कि अगर उसे ऐसा लगता है कि मैंने कोई गद्दारी की है तो वह कोई भी परिणाम भुगतने के लिए तैयार है, और इस आक्रमण के जवाब में वह कोई हमला नहीं करेंगे।
सुल्तान मेदिनी राय की वफादारी का कायल हो गया और उसने मेदिनी राय को फिर से अपने राज दरबार में जगह दी।
परंतु सुल्तान महमूद के मन में फिर से मेदिनी राय के खिलाफ वहम पैदा कर दिया गया।
इसी से भयभीत होकर सुल्तान महमूद खिलजी।। ने गुजरात में शरण मांगी, जहां उसे सुल्तान मुजफ्फर से सहायता मिली। यह वही सुल्तान मुजफ्फर है जिसने मालवा से निष्कासित साहिब खान को शरण दी थी।
जब मेदिनी राय को इस बात का पता चला तो वह सुल्तान मुजफ्फर के राजदरबार में गए और यह विश्वास दिलाया कि वह महमूद के विरूद्ध कोई षड्यंत्र नहीं कर रहे हैं और उसे कभी धोखा नहीं से सकते।
मालवा के संघर्ष में राणा सांगा का प्रवेश
वर्ष 1518:
जब मेदिनी राय को यह आभास हुआ कि सुल्तान महमूद उन पर अभी भी संदेह कर रहा है और उन्हें गद्दार समझ रहा है तो वह अपने पुत्र राय रायन तथा अन्य राजपूतों को मांडू के किले में छोड़कर चित्तौड़ (मेवाड़ की राजधानी) गए तथा राणा सांगा से मदद मांगी।
राणा सांगा ने अपनी सेना को सारंगपुर (मालवा में) तक पहुँचा दिया, लेकिन आगे क्या करना है इस पर परिस्थिति के अनुसार ही निर्णय लेने का फैसला किया।
सुल्तान मुजफ्फर ने राणा सांगा की सेना के आगमन की खबर सुनकर राणा सांगा की सेना के खिलाफ अपनी एक विशाल सैन्य टुकड़ी भेजी।
दूसरी ओर एक अन्य सैन्य टुकड़ी ने मांडू किले को घेर लिया गया और लगभग उन्नीस हजार राजपूतों को मौत के घाट उतार दिया गया तथा कई महिलाओं ने अपने सम्मान को बचाने के लिए जौहर किया।
इस प्रकार 1518 में महमूद खिलजी मालवा की राजगद्दी पर फिर से बैठा।
मांडू की राजगद्दी पर सुल्तान खिलजी के पुनः बैठने पर राणा सांगा ने मेदिनी राय से सलाह मशविरा किया तथा दोनों इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि अभी इस समय मांडू पर आक्रमण करना ठीक नहीं रहेगा। इसके बाद राणा सांगा ने अपनी सेना को वापस बुला लिया।
राणा सांगा मेदिनी राय से बहुत प्रभावित थे इसलिए उन्होंने सुल्तान इब्राहिम लोदी को पराजित करके जो दो प्रांत जीते थे (चंदेरी और गागरोन) उन्हें मेदनी राय को शासन करने के लिए सौंप दिया।
वर्ष 1519: राणा सांगा और महमूद खिलजी के मध्य हुआ गागरोन का युद्ध और सुल्तान महमूद खिलजी।। की पराजय
मांडू पर महमूद खिलजी का पूर्ण अधिकार होने के बाद गुजरात के सुल्तान मुजफ्फर अपनी कुछ सैनिक टुकड़ी को सुल्तान महमूद खिलजी के पास छोड़कर वापस गुजरात लौट आया।
महमूद खिलजी ने मुजफ्फर शाह की इसी सैन्य टुकड़ी की सहायता से गागरोन पर आक्रमण कर दिया तथा भीमकरण जिन्हें मेदिनी राय ने गागरोन की रक्षा करने का दायित्व सौंपा था, महमूद की सेना ने उन्हें मौत के घाट उतार दिया।
गागरोन पर आक्रमण की सूचना मिलने पर राणा साँगा ने अपनी विशाल सेना को चित्तौड़ से रवाना किया और इस प्रकार एक भीषण युद्ध लड़ा गया। इस युद्ध में महमूद की सेना बुरी तरह पराजित हुई।
गागरोन के युद्ध में सुल्तान महमूद खिलजी युद्ध भूमि में घायल होकर गिर गया था। जब यह सूचना राणा सांगा को मिली तो उन्होंने अपने सैनिकों को आदेश दिया कि सुल्तान महमूद को सम्मानपूर्वक पालकी में बैठकर चित्तौड़ लाया जाए।
3 महीने बाद जब महमूद खिलजी के घाव पूरी तरह भर गए तब राणा सांगा ने आदर पूर्वक उसे चित्तौड़ से रवाना किया। मांडू लौटने से पूर्व सुल्तान महमूद ने मालवा के पहले शासक होशंग की विरासत में मिला रत्न जड़ित मुकुट महाराणा को सांगा को भेंट किया। परंतु महमूद खिलजी के दुस्साहस की सजा देने के लिए महाराणा सांगा ने खिलजी के एक पुत्र को अपनी कैद में रख लिया।
1514 में इडर (गुजरात) के राजा राव भीम की मृत्यु के बाद, उनके भतीजे रायमल ने राणा सांगा की मदद से राव भीम के पुत्र भारमल को राजगद्दी की दावेदारी से दूर कर दिया और इडर की गद्दी पर विराजमान हुए।
सुल्तान मुजफ्फर ने इससे असंतुष्ट होकर रायमल को इडर की राजगद्दी से बाहर करने और भारमल को पुनः राजगद्दी दिलाने के लिए निजाम-उल-मुल्क को भेजा। रायमल ने निजाम-उल-मुल्क के नेतृत्व में आयी गुजराती सेना के साथ भीषण युद्ध किया। अंत में पराजित होने पर 1517 में रायमल ने बीजानगर में शरण ली।
वर्ष 1520: जब निजाम उल मुल्क ने राणा सांगा की तुलना की श्वान(Dog) से
इडर पर विजय प्राप्त करने के बाद निजाम उल मुल्क तथा भारमल राज्य का शासन कार्य मिलकर देखने लगे। राज दरबार में कुछ रायमल का समर्थन करने वाले राजदरबारी भी थे। एक दिन जब राज दरबार में राज्य के शासन के संबंध में कुछ गंभीर चर्चा चल रही थी तब रायमल का समर्थन करने वाले राजदरबारी ने निजाम उल मुल्क के सामने रायमल और राणा सांगा के युद्ध कौशल तथा उनकी वीरता की प्रशंसा कर दी और कहा की जल्द ही राणा सांगा और रायमल यहां आएंगे और तुमसे इडर की राजगद्दी को छीन लेंगे।
क्रोधित होकर निजाम उल मुल्क ने राणा सांगा की तुलना श्वान से की और कहा कि मैं तो यहां बैठा ही हूं पर वो श्वान यहां आता क्यों नहीं?
1520-21 - गुजरात की विजय - निजामुल-मुल्क की हार और राणा सांगा का बदला
जब राणा सांगा को निजाम उल मुल्क के द्वारा किए गए इस अपमान की सूचना मिली तो राणा सांगा ने उसे दंडित करने का निर्णय लिया। बदला लेने के लिए राणा सांगा ने विशाल सेना के साथ चित्तौड़ से प्रस्थान किया। बागर (इडर के पास) में रावल उदय सिंह, जोधपुर के राव गंगा और मेड़ता के राव वीरमदेव भी राणा सांगा के साथ जुड़ गए ।
राणा सांगा की विशाल सेना को देखकर निजाम उल मुल्क भयभीत हो गया और वह अहमदनगर के किले में भाग गया। राणा सांगा ने भी निजाम उल मुल्क का पीछा अहमदनगर तक किया।
राणा सांगा की सेना ने अहमदनगर के किले को चारों तरफ से घेर लिया। मुगल सेना ने किले के दरवाजों को बंद करके किले के ऊपर की तरफ से राणा सांगा की सेना पर हमला करना शुरू किया। इस युद्ध में महाराणा सांगा के एक प्रमुख सेनापति डूंगर सिंह चौहान बुरी तरह घायल हो गए थे। अपने पिता को बुरी तरह घायल देख डूंगर सिंह के पुत्र कान्हसिंह ने मुगलों से इसका प्रतिशोध लेने की ठानी।
उस समय किले के मुख्य द्वारों पर तीक्ष्ण भाले लगे रहते थे ताकि कोई हाथी या कोई सेना उसे तोड़ कर अंदर ना आ पाए।
प्रतिशोध की ज्वाला में जलते हुए कान्ह सिंह ने महावत से कहा "मै मुख्य द्वार के पास जा रहा हूं , तुम मेरे शरीर पर हाथी के माध्यम से प्रहार करना। इससे द्वार पर लगे भाले मेरे शरीर में घुस जाएंगे परंतु जब हाथी मेरे द्वारा मुख्य द्वार पर प्रहार करेगा तो द्वार टूट जाएगा और हमारी सेना आसानी से अंदर प्रवेश कर पाएगी।
जैसा कान्ह सिंह ने कहा था वैसा ही महावत ने किया। इस युक्ति को अपनाते हुए मुख्य द्वार तो टूट गया परंतु कान्ह सिंह की उसी समय मृत्यु हो गई।
इसे देखते हुए महाराणा सांगा की सेना में जोश आ गया और किले के अंदर पहुंचकर मुगल सेना के लगभग सभी सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया गया किंतु निजाम उल मुल्क किले के अंदर मौजूद किसी गुप्त रास्ते से भागने में सफल रहा।
इसीलिए राणा सांगा ने अपना बदला लेने के लिए पूरे अहमदनगर की मुस्लिम संपत्ति को लूट लिया और पुनः मेवाड़ लौट गए।
राणा सांगा के द्वारा अहमदनगर की लूट से मुजफ्फर बहुत क्रोधित हो गया था। इसका बदला लेने के लिए सुल्तान मुजफ्फर ने अपनी नई सेना तैयार की और पूरी तरह से तैयारी करने के बाद अपनी सेना को मंदसौर के दुर्ग की ओर भेजा। मंदसौर का दुर्ग राणा सांगा के शासन के अंदर ही आता था। इसकी सूचना मिलते हैं सही राणा सांगा ने चित्तौड़ से प्रस्थान किया और नन्दसा(मंदसौर के पास स्थित जगह) में अपना सैन्य कैंप लगाया।
महमूद खिलजी ने दी सुल्तान मुजफ्फर की मदद करने के लिए अपनी सेना है भेज दी। दूसरी ओर अन्य सभी राजपूत शासकों ने भी राणा सांगा को समर्थन दिया। इस प्रकार दोनों तरफ से विशाल मात्रा में सेनाओं की संख्या हो गई। राणा सांगा को समर्थन देने के लिए मेदिनी राय , रायसेन के शासक तथा राजा सिल्हिदी ने प्रमुख भूमिका निभाई।
राणा सांगा की तरफ विशाल सेना को देखा कर महमूद खिलजी भयभीत हो गया और सांगा से संधि कर ली। संधि के बाद महमूद खिलजी ने राणा सांगा से विनती की कि उसके बेटे को कैद से छोड़ दिया जाए। राणा सांगा ने बड़ा दिल दिखाते हुए खिलजी के बेटे को कैद से आजाद करवा दिया इसके बाद खिलजी पुनः मांडू लौट आया।
1518 में इब्राहिम लोदी और राणा सांगा के मध्य हुआ खतौली का युद्ध
खतौली का युद्ध मेवाड़ के शासक राणा सांगा और दिल्ली के सुल्तान इब्राहिम लोदी के मध्य ग्वालियर में हुआ था। 1518 में वर्तमान राजस्थान के बहुत से भाग दिल्ली की सल्तनत के अधीन थे।
परंतु राजपूतों ने भी एक कुशल रणनीति के तहत धीरे-धीरे छोटे-छोटे भागों को दिल्ली की सल्तनत से आजाद कराने की रणनीति को अपनाया तथा रणथंबोर जैसी मजबूत सुरक्षा वाली जगह को भी जीतने में कामयाब रहे।
इसके बाद दिल्ली के सुल्तान इब्राहिम लोदी ने मेवाड़ पर आक्रमण किया परंतु इब्राहिम लोदी की बुरी तरह हार हुई। इस युद्ध में राणा सांगा ने लोदी वंश के एक राजकुमार को कैद कर लिया था और इब्राहिम लोदी से एक बड़ी रकम वसूल करने के बाद ही उसे छोड़ा।
दुर्भाग्य पूर्ण रूप से इस युद्ध में राणा सांगा ने अपना बाया हाथ (Left arm) खो दिया जो कि तलवार लग जाने से घायल हो गया था। इसके साथ-साथ उनके पैर में एक बाण भी लग गया था और इसी कारण उन्होंने इस युद्ध में एक हाथ के साथ-साथ एक पैर भी खो दिया।
इतने गंभीर घाव का उपचार कई महीनों तक चलने के बाद राणा सांगा स्वस्थ हो गए।
1598 में ही इब्राहिम लोदी ने एक बार फिर से मेवाड़ पर आक्रमण किया और इस बार दोनों सेनाओं की मुलाकात धौलपुर में हुई। वीर राजपूत योद्धा महाराणा सांगा ने इस युद्ध में भी इब्राहिम लोदी को बुरी तरह पराजित किया।
राणा सांगा इस बार इब्राहिम लोदी को इतनी आसानी से नहीं जाने देना चाहते थे और इसी कारण उन्होंने गागरोन और चंदेरी जैसे रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण मालवा के स्थानों को अपने अधिकार में ले लिया।
महाराणा सांगा का मीराबाई से संबंध
महाराणा सांगा के ज्येष्ठ पुत्र का नाम भोजराज था और इन्हीं के साथ मीराबाई का विवाह हुआ था इस प्रकार महाराणा सांगा, मीराबाई के ससुर थे।
महाराणा सांगा की जीवन यात्रा में खानवा का युद्ध एक महत्वपूर्ण युद्ध था अतः दूसरी पोस्ट में खानवा के युद्ध के बारे में विस्तृत वर्णन किया जाएगा।