वीरों की धरा-मेवाड़ का इतिहास। mewar history in Hindi

वीरों की धरा-मेवाड़ का इतिहास। mewar history in Hindi

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Mewar history and Dynasty in Hindi

मेवाड़ का इतिहास(मेवाड़ के राजवंश का इतिहास) । Mewar history in Hindi 


(History of Mewar in Hindi - Mewar Dynasty in Hindi)

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वैसे तो मेवाड़ का इतिहास अति प्राचीन है। पुरातात्विक खुदाईयो से पता चलता है कि ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी से पहली शताब्दी तक यहां नदियों के किनारे मानव बस्तियां थी। महाराणा प्रताप के पूर्वजों का काल गुहादित्य से आरंभ होता है जिन्होंने बलयी से आकर यहां अपने राज्य की स्थापना की थी। इन के वंशज गुहील या गहलौत कहलाए, जिसकी एक शाखा सिसौदिया कहलाई। आगे चलकर इसी वंश में बप्पा रावल जैसे महापराक्रमी राजा हुए। मेवाड़ कभी भी मुगल आक्रमणकारियों के सामने नहीं झुका।

बप्पा रावल का गौरवशाली इतिहास 

बप्पा रावल ने 734 से 753 ईसवी तक राज्य किया। विदेशी आक्रमणकारियों से मेवाड़ को स्वतंत्र करने के लिए प्रबल संघर्ष करने के प्रमाण बप्पा रावल और उनके उत्तराधिकारियो की वीरता की गाथाओं से मिलते हैं। इन्होंने मुल्तान तक जाकर अरब आक्रमणकारियों को खदेड़ा ताकि वे भारत की धरती पर आगे बढ़ने का साहस न करें।

सुमेर सिंह और उनके वंशज रतन सिंह

बप्पा रावल की कई पीढ़ियों के बाद उनके वंशज सुमेर सिंह 1191 में जब सिंहासन पर आसीन थे, तब मोहम्मद गोरी ने भारत पर आक्रमण किया था। सुमेर सिंह के आठवें वंशज रतन सिंह के समय सन 1303 में अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ पर हमला करके उसे जीत लिया था। राजपूतनियो ने अपनी महारानी पद्मिनी के साथ जौहर करके खुद को अग्नि कुंड को समर्पित कर दिया था और उनके वीर पति, पिता, भाई केसरिया बाना पहन दुर्गे के द्वार से निकलकर अलाउद्दीन खिलजी की विशाल सेना से जा टकराए। जब तक उनमें से एक भी राजपूत जीवित था, खिलजी की सेना को उन्होंने आगे नहीं बढ़ने दिया। जब अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ के दुर्ग में प्रवेश किया तो उसे राख के ढेर के अलावा कुछ भी हाथ नही लगा। अलाउद्दीन खिलजी को समझ नहीं आ रहा था कि अपनी जीत पर हंसे या रोए। उसने कभी ऐसी स्थिति नहीं देखी थी ना ही इसकी कल्पना की थी। अंततःअपने बेटे को चित्तौड़ की सूबेदारी सौंपकर अलाउद्दीन खिलजी दिल्ली लौट गया।
इसके बाद मेवाड़ के इतिहास के गगन में एक और नक्षत्र का उदय हुआ जिसका नाम था हमीर। 

वीर योद्धा हमीर

हमीर शूरवीर भी थे और महत्वकांक्षी भी। उन्होंने सिंहासन पर बैठते ही अपनी सैनिक शक्ति बढ़ाने और राज्य विस्तार की योजनाओं पर काम करना प्रारंभ कर दिया था। उनकी आंख की सबसे बड़ी किरकिरी तो चित्तौड़गढ़ था जो उनके पूर्वज रतन सिंह से खिलजी ने छीन लिया था। उन्होंने पर्याप्त सैन्य बल, सुनियोजित रणनीति और आत्मविश्वास के साथ आक्रमण करके चित्तौड़गढ़ जीत लिया। 

खिलजियों के बाद हमीर की तुगलको से भी कई बार मुठभेड़ हुई जिनमें हमेशा हमीर विजयी रहे। हमीर के विषय में एक और उल्लेखनीय बात है कि सर्वप्रथम इस वंश में उन्होंने ही महाराणा की उपाधि धारण की थी जो आगे चलकर मेवाड़ के शासकों की उपाधि बनी रही।

हमीर सिंह के उत्तराधिकारी क्षेत्रसिंह


अपने राज्य का विस्तार करने और उसे सुगठित करने के बाद हमीर ने राजगद्दी अपने योग्य पुत्र क्षेत्रसिंह को सौंपी। 

महाराणा लाखा और महाराणा कुंभा


क्षेत्रसिंह के बाद 1382 में महाराणा लाखा और उनके बाद 1433 में मेवाड़ के शासन की बागडोर उनके पुत्र महाराणा कुंभा के हाथों में आई।

महाराणा कुंभा ने अपने कुशल शासन और युद्धों में मेवाड़ की विजय पताका फहरा कर उसकी प्रतिष्ठा में चार चांद लगा दिए। अपने राज्य का विस्तार करने के साथ-साथ महाराणा कुंभा ने कई दुर्ग  बनवाकर उसे सुरक्षित करने का प्रयास किया लेकिन कुंभा के राज्यकाल का सबसे खेदजनक यह प्रसंग रहा कि मेवाड़ के ऐसे यशस्वी एवं योग्य शासक की हत्या उनके ही अयोग्य पुत्र उदासिंह ने कर दी।
मेवाड़ के वीर सामंतों से यह सहन नहीं हुआ। उन्होंने उदासिंह के छोटे भाई रायमल को महाराणा घोषित कर दिया। दोनों भाइयों के बीच हुए युद्ध में आशा के अनुरूप रायमल विजयी रहे।

रायमल के उत्तराधिकारी राणा सांगा


रायमल के पुत्र संग्राम सिंह महापराक्रमी सिद्ध हुए। राणा सांगा के नाम से विख्यात इस वीर सेनानी ने 1508 ईसवी में सत्ता संभालते ही मेवाड़ की शक्ति बढ़ाना आरंभ कर दी।

अपनी विजय पताका फहराते हुए राणा सांगा ने उन सभी प्रदेशों को फिर से अपने राज्य में सम्मिलित किया जो राणा कुंभा के बाद मेवाड़ के शासकों से छीन गए थे। वे अथक परिश्रमी और अत्यंत योग्य सेनापति थे। उनके शरीर पर 80 घाव थे। राणा संग्राम सिंह को सबसे बड़ा आघात खानवा की लड़ाई को जहीरूद्दीन बाबर से हारने पर लगा। वे पूरी तरह से टूट गए और जंगलों में चले गए और इस बदहाली में 1528 ईसवी में उनका देहांत हो गया।

महाराणा सांगा के बाद मेवाड़ का इतिहास


राणा सांगा के बाद मेवाड़ का इतिहास उथल पुथल और षड्यंत्र से भरा रहा। जिसके अंतिम निष्कर्ष के रूप में राज्य के वास्तविक हकदार उदय सिंह को महाराणा का पद मिला। 

षड्यंत्र के बल पर दासी पुत्र से महाराणा बने बनवीर को युद्ध में हराकर 1540 ईसवी में उदय सिंह जब चित्तौड़गढ़ के सिंहासन पर आरूढ़ हुए तब मेवाड़ में अराजकता का वातावरण था। हालांकि तब उदय सिंह की उम्र बहुत कम थी लेकिन जल्द ही उन्होंने राज पाट को ठीक से संभालने की कोशिश शुरू कर दी और जीर्ण शीर्ण मेवाड़ की हालत धीरे-धीरे सुधारने लगी।

छोटे से मेवाड़ का विशाल मुगल सल्तनत के साथ भीषण संघर्ष


1567 में चित्तौड़गढ़ पर एक बड़ा संकट आया जब अकबर ने एक बड़ी सेना लेकर चढ़ाई कर दी। उदयसिंह को पहले ही इसकी भनक लग गई थी इसीलिए वह पश्चिमी पहाड़ी प्रदेश में चले गए तथा किले की सुरक्षा के लिए उन्होंने वीर राजपूत जयमल और पत्ता के नेतृत्व में 8000 राजपूतों को नियुक्त कर दिया। आसपास का इलाका खाली करवा दिया गया कुछ लोग दूर जंगल और पहाड़ों में चले गए। बाकी करीब 30 हजार नगरवासी चित्तौड़गढ़ दुर्ग को सुरक्षित जानकर वहां आ गए।

अकबर की सेना कई महीनों तक चित्तौड़गढ़ दुर्ग को घेरे रही और सुरंग खोदकर उनमें बारूद भरकर दुर्ग की दीवारों को तोड़ने की कोशिश की गई। परंतु जयमल और पत्ता सिसोदिया की वीरता के कारण अकबर की सेना कई महीनों तक दुर्ग के अंदर जाने में कामयाब नहीं हो पाई।

अंततः राजपूतों के भरसक विरोध के बावजूद किले की दीवार कई जगहों से टूट गई और अब राजपूतों के पास प्रत्यक्ष युद्ध के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था। राजपूतनिया जौहर की ज्वाला में कूद गई और केसरिया बाना पहने वीर राजपूत योद्धा दुर्ग के द्वार खोलकर मुगलों की विशाल सेना पर टूट पड़े।

विजयी अकबर ने जब चित्तौड़गढ़ दुर्ग में प्रवेश किया तो वहां ना उदय सिंह मिले ना ही उनका शाही खजाना।

अकबर के आक्रमण के भय से चित्तौड़गढ़ के 30 हजार आम नागरिकों ने दुर्ग को सुरक्षित समझकर उसमें शरण ली थी। परंतु अकबर महान कहे जाने वाले उस मुगल सम्राट को निर्दोष नागरिकों की हत्या करने का आदेश देते समय जरा सा भी संकोच नहीं हुआ और देखते ही देखते 30 हजार लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया।

चित्तौड़ दुर्ग पर अकबर की सेना के कब्जे के बाद महाराणा प्रताप और अकबर के बीच संघर्ष की शुरुआत होती है तथा 1576 में भीषण हल्दीघाटी युद्ध होता है।

इतने बड़े मुगल साम्राज्य के सामने भी अगर मेवाड़ खड़ा रह पाया तो उसका कारण सिर्फ और सिर्फ मेवाड़ राज्य के वीर पूर्वजों का गौरवशाली इतिहास ही था और उसी का सम्मान करते हुए वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप ने मेवाड़ के स्वाभिमान के लिए जीवन के अंतिम क्षण तक संघर्ष किया तथा मृत्यु से पहले मुगल सल्तनत से मेवाड़ के  85% भाग को मुगलों के चंगुल से आजाद करा लिया था।




















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