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अकबर के द्वारा महाराणा प्रताप के पास भेजे गए दूतो की जानकारी । Messengers sent by Akbar to Maharana Pratap
अकबर ने महाराणा प्रताप के साथ संधि करने के लिए अपने चार दूतो को भेजा था जिनके नाम इस प्रकार हैं-
(Messengers sent by Akbar to Maharana Pratap)
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- जलाल खान कोरची
- कुंवर मानसिंह
- भगवान दास
- टोडरमल
अकबर के राज्य काल तक मुगल साम्राज्य दूर-दूर तक फैल चुका था। ऐसे में छोटे से मेवाड़ का अधीनता स्वीकार ना करना उसे बुरी तरह परेशान कर रहा था। महाराणा प्रताप का मेवाड़ कभी मुगलों की अधीनता स्वीकार नहीं कर सकता था भले ही स्वाधीनता की कुछ भी कीमत चुकानी पड़ी हो।
अकबर, मेवाड़ को अपने अधीन करने के लिए व्याकुल हो रहा था। उसने इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया था। छोटा सा मेवाड़ इतने बड़े मुगल साम्राज्य के सामने कैसे नही झुक रहा है, यह बात अकबर को सहन नहीं हो रही थी।
उसने उम्मीद की थी कि शायद आक्रमण के खतरे को टालने के लिए महाराणा प्रताप खुद उसके सामने संधि प्रस्ताव भेजेंगे। अकबर के सामने दो विकल्प थे या तो सीधे मेवाड़ पर चढ़ाई करके मेवाड़ को अपने अधीन कर ले या फिर महाराणा प्रताप से संधि करके उन्हें अपने अधीन कर ले।
अकबर सीधे महाराणा प्रताप से टकराना नहीं चाहता था। 1535 की चित्तौड़ विजय का कड़वा स्वाद वह भुला नहीं था।
हालांकि अकबर चित्तौड़गढ़ दुर्ग पर कब्जा करने में सफल रहा परंतु दुर्ग को बचाने के लिए जयमल, पत्ता सिसौदिया और कल्ला राठौड़ जब त्रिकाल बनकर मुगल सेना पर टूट पड़े तो जीत इतनी महंगी पड़ेगी अकबर ने कभी कल्पना भी नहीं की हो होगी। इस संघर्ष में 8000 राजपूत योद्धाओं ने 16000 मुगल सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया था।
चित्तौड़गढ़ दुर्ग को जीतने के बाद अकबर को खाली दुर्ग मिला था। दुर्ग के अंदर ना तो अकबर को महाराणा उदय सिंह मिले ना ही कोई खजाना। इसी कारण 30,000 निर्दोष नागरिकों की हत्या करके अकबर ने अपनी खीझ मिटाई थी।
जब गुप्तचरो के द्वारा महाराणा प्रताप को यह सूचना मिलने लगी की अकबर मेवाड़ राज्य से संधि करना चाहता है तो महाराणा प्रताप को यह अच्छी तरह पता था कि अगर वह संधि स्वीकार नहीं करेंगे तो क्या होगा। महाराणा प्रताप की पहली प्राथमिकता अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करने की थी।
इसके लिए एक सुगठित प्रशिक्षित सेना की आवश्यकता थी अतः महाराणा प्रताप ने सेना के पुनर्गठन और सशक्तिकरण की प्रक्रिया आरंभ कर दी।
नई सैनिकों को शामिल किया गया, उन्हें अस्त्र शस्त्र प्रशिक्षण दिया गया। अपने सीमित साधनों में भी महाराणा प्रताप ने इस कार्य को पूरी कुशलता से अंजाम दिया।
दूरदर्शी और कूटनीतिज्ञ अकबर को यह भी मालूम था कि मेवाड़ राजघराने के लिए राजपूतों के मन में बहुत आदर सम्मान है। अतः मेवाड़ पर चढ़ाई करके वह इनमें असंतोष की भावना नहीं फैलाना चाहता था इसलिए महाराणा प्रताप की ओर से कोई प्रस्ताव न आने पर अकबर ने अपनी तरफ से संधि प्रस्ताव भेजने का निर्णय किया।
महाराणा प्रताप के सामने भी दो विकल्प थे या तो वे अकबर से संधि करके अपने और अपनी प्रजा के लिए सुखचैन खरीद लेते या स्वतंत्र रहकर संघर्ष का कठिन मार्ग अपनाते।
अकेले महाराणा प्रताप तो ऐसा निर्णय नहीं ले सकते थे। आखिर बिना सामंतो और प्रजाजनों के सक्रिय सहयोग के बिना यह कैसे संभव था?
महाराणा प्रताप ने अपने सभी सामंत सरदारों, मेवाड़ के सहयोगी तथा प्रजा जनों का मन टटोला। सभी ने एक ही परामर्श दिया कि पराधीनता स्वीकार करने के बजाय मातृभूमि की रक्षा में प्राण न्योछावर करना श्रेयस्कर समझेंगे।
अकबर के द्वारा महाराणा प्रताप के पास भेजा गया पहला दूत-जलाल खान कोरची
(First messenger sent by Akbar to Maharana Pratap -Jalal khan Korchi)
अकबर ने महाराणा प्रताप की राजगद्दी पर बैठने के लगभग छह महीने बाद ही सितंबर 1572 सितंबर में महाराणा प्रताप के सामने संधि प्रस्ताव रखने के लिए मीठा बोलने वाले जलाल खान कोरची को मेवाड़ भेजा। जलाल खान कोरची के साथ अन्य कुछ दक्ष दरबारी भी साथ थे।
महाराणा प्रताप ने जलाल खान कोरची और उसके साथियों का उचित आदर सम्मान किया और शाही अतिथिशाला में उनके लिए अनेक सुविधाओं की व्यवस्था की। कोरची ने अपने मीठे शब्दों से महाराणा प्रताप को अकबर की अधीनता स्वीकार कराने के लिए पूरी कोशिश की।
जलाल खान कोरची ने अत्यंत विनम्रता के साथ महाराणा प्रताप को सम्राट अकबर के साथ शांति संधि करने के लाभ और संधि न करने से उनको और उनकी प्रजा को होने वाले संभावित कष्टों के बारे में समझाया।
समय-समय पर महाराणा प्रताप के साथ बैठे प्रमुख सामंतों और कोरची के साथ आए उसके सहयोगियों में वार्ताओं के दौर चलते रहे। महाराणा प्रताप उनकी हर बात को बड़े ध्यान से सुनते पर कोई ठोस प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करते थे।
कोरची ने अपने प्रयास जारी रखे। वह सकारात्मक या नकारात्मक कोई न कोई जवाब चाहता था। लगभग 2 महीने बीत जाने पर उसने निश्चित उत्तर के लिए महाराणा प्रताप से बहुत आग्रह किया तो वे बोले "खान साहब मेवाड़ के शासक तो भगवान एकलिंग जी हैं मैं तो उनका दीवान हूं। जब तक उनकी तरफ से कोई जवाब नही मिल जाता, मैं आपको क्या जवाब दूं?"
कोरची को पहले तो कुछ समझ नहीं आया। परंतु थोड़े समय बाद वह समझ गया कि महाराणा प्रताप अब कोई जवाब नही देंगे। निराश होकर कोरची ने अपना बोरिया बिस्तर समेटा और दिल्ली की तरफ चल पड़ा।
कोरची की असफलता से अकबर निराश नहीं हुआ। उसे लगा की संधि वार्ता के लिए किसी राजपूत को भेजना चाहिए था। कुछ सोच विचार करने के बाद उसने कुंवर मानसिंह को इस काम के लिए चुना।
अकबर के द्वारा महाराणा प्रताप के पास भेजा गया दूसरा दूत-कुंवर मानसिंह
(Second messenger sent by Akbar to Maharana Pratap -Kunwar Mansingh)
1573 ईस्वी में मानसिंह ने एक बड़ी सेना लेकर शोलापुर पर आक्रमण किया और उसे जीत लिया था। इसके बाद उसने अंग रक्षकों की एक छोटी टुकड़ी अपने पास रख कर शेष सेना को अकबर के पास लौट जाने का आदेश दिया।
इतनी समझ उसे भी थी कि मेवाड़ की दिशा में सैनिकों सहित आगे बढ़ने का अर्थ क्या लगाया जा सकता है।
महाराणा प्रताप को मानसिंह के अकबर का दूत बनकर आने की सूचना पहले ही मिल गई थी। उन्होंने अपने पुत्र अमरसिंह को आदेश दिया कि मानसिंह का उदयपुर आने पर भव्य स्वागत किया जाए। सारी तैयारियां होने के बाद अमर सिंह ने मानसिंह का स्वागत किया और उसे बड़े आदर के साथ दरबार में लेकर आए।
जलाल खान कोरची और मानसिंह में बहुत अंतर था। जलाल खान कोरची मृदुभाषी तथा विनम्रता था। जबकि मानसिंह मुगल साम्राज्य की शक्ति के नशे में चूर था।
अकबर का प्रमुख सेनापति होने के नाते मानसिंह बहुत से अभियानों पर गया था और उनमें विजय प्राप्त की थी। मानसिंह को लगा था कि मेवाड़ जैसा छोटा राज्य उसके विनम्र प्रस्ताव में छिपी धमकी से भयभीत होकर संधि के लिए राजी हो जाएगा। उसकी भाषा में किसी दूत की विनम्रता के स्थान पर ताकत के बल पर अपनी बात मनवाने की खनक ज्यादा थी।
पहले दिन की बैठक में ही मानसिंह और उसके साथ आए दरबारियों ने महाराणा प्रताप के सामने प्रस्ताव रखे। इनका सारांश यह था कि महान मुगल सम्राट को मेवाड़ के वीर शिरोमणि राणा से संधि करके बहुत प्रसन्नता होगी। यदि आपस में विवाह संबंध भी हो जाए तो यह मैत्री स्थायी और प्रगाढ़ हो सकती है।
ये बात सुनते से ही महाराणा प्रताप के सामंतो की त्योरियां चढ़ गई। परंतु महाराणा प्रताप के संकेत से सब शांत हो गए। इसके साथ यह भी विकल्प था कि यदि महाराणा प्रताप को विवाह संबंध प्रस्ताव किसी कारण उचित नहीं लगता तो यह संधि की अनिवार्य शर्त नहीं है। इसके बाद मानसिंह ने कहा की महाराणा प्रताप अकबर के दरबार में अपनी हाजिरी दे तो शहंशाह उन्हें ऊंचे रुतबा दे सकते हैं। दरबार में उनकी प्रतिष्ठा के अनुरूप ही उनका मान सम्मान किया जाएगा। इसके साथ मानसिंह के साथ आए दरबारियों ने महाराणा प्रताप को दी जाने वाली जागीर,पदवी तथा अन्य भेंटो के बारे में विस्तृत जानकारी दी।
महाराणा प्रताप सारी बात ध्यानपूर्वक सुनते रहे। उसके बाद उन्होंने इतना ही उत्तर दिया कि अपने सभी सामंतो से परामर्श करने के बाद ही कोई निर्णय कर सकेंगे।
परंतु दो-तीन दिन बीत जाने के बाद भी जब कोई निश्चित उत्तर मानसिंह को ना मिला तो वह समझ गया कि महाराणा प्रताप उसका प्रस्ताव कभी नहीं मानेंगे वह केवल टालमटोल कर रहे हैं। कोरची को उन्होंने 2 महीने तक इसी तरह टाला था परंतु मानसिंह में इतना धैर्य नहीं था।
अपना प्रस्ताव न माने जाने को मानसिंह ने अपना व्यक्तिगत अपमान समझा।
12 बरस की छोटी सी उम्र में अकबर की अधीनता में आए मानसिंह को स्वाधीनता और पराधीनता का अंतर समझ नहीं आ सकता था। संधि प्रस्ताव को टालना उसे महाराणा प्रताप की हठधर्मिता ही लगी।
विदाई का दिन आने पर अमर सिंह ने उदय सागर के किनारे अतिथियों के लिए विशेष भोज का आयोजन किया था। झील के किनारे लगाए गए सुंदर गलियारे में अतिथियों एवं उनके साथ भोजन करने वाले सामंतों के लिए आसन लगाए गए और परंपरागत तरीके से भोजन करने के लिए इनके सामने चौकियां रखकर सोने चांदी के बर्तनों में भोजन परोसा गया। मानसिंह राणा प्रताप के आने की प्रतीक्षा कर रहा था। जब कुछ देर तक महाराणा प्रताप नजर नहीं आए तो मानसिंह ने पूछा "अमर सिंह भोजन तक तो बहुत सुंदर आयोजन हुआ है पर अभी तक महाराणा प्रताप नहीं आए?
अमर सिंह ने अत्यंत विनम्रता के साथ हाथ जोड़कर निवेदन किया कि"कुंवर जी मैं आपकी सेवा में उपस्थित हूं आपके साथ भोजन भी अवश्य करूंगा। पिताश्री उदर शूल से परेशान है अतः वह नहीं आ सकेंगे। इतना सुनते ही मानसिंह गुस्से से लाल हो गया और वह समझ गया कि महाराणा प्रताप उसके साथ बैठकर भोजन करने में अपना अपमान समझते हैं। मान सिंह ने अमरसिंह से गुस्से में कहा "मैं जा रहा हूं अब दिल्ली से उनके पेट दर्द की दवा लेकर ही आऊंगा।"
मानसिंह की हठधर्मिता और भोजन ना करने की कहानी जब अकबर को पता चली तो उसे यह समझते देर न लगी कि युवा मानसिंह को दूत बनाकर भेजने में उससे गलती हुई।
अकबर के द्वारा महाराणा प्रताप के पास भेजा गया तीसरा दूत-भगवान दास
(Third messenger sent by Akbar to Maharana Pratap -Bhagwan Das)
मानसिंह के साथ संधि वार्ता विफल होने के बाद अकबर ने मानसिंह के पिता राजा भगवानदास को संधि प्रस्ताव के साथ भेजने का निर्णय लिया। कुछ इतिहासकारों के अनुसार मानसिंह, भगवानदास का भतीजा था जिसे वह अपने पुत्र के समान मानते थे।
अकबर का आदेश पाकर राजा भगवानदास ने अक्टूबर 1573 में मेवाड़ की तरफ कूच किया। भगवानदास के आने पर महाराणा प्रताप ने स्वयं उनकी अगवानी की और भरपूर स्वागत किया। महाराणा प्रताप ने कहा कि आप तो मेरे बड़े हैं, पूज्य हैं। इससे भगवानदास को आशा की किरण दिखाई दी। उन्होंने सोचा कि मानसिंह की धमकी का कुछ तो असर हुआ है। राजा भगवानदास को आशंका थी कि अन्य सामंतो की उपस्थिति में संधि की चर्चा करने से कुछ समस्या हो सकती है। भगवानदास मेवाड़ी राजपूतों के स्वभाव और चरित्र से भलीभांति परिचित थे। किसी भी राव रावल की नकारात्मक प्रतिक्रिया वार्ता को विफल कर सकती थी। अतः उन्होंने शर्त रखी कि जो कुछ भी बातचीत होगी होगी वह महाराणा प्रताप और उनके बीच ही होगी। कोई अन्य वार्ता में सम्मिलित नहीं होगा।
सभी सामंत महाराणा प्रताप को जानते थे कि वह कभी भी मेवाड़ की स्वाधीनता के साथ समझौता नहीं करेंगे।
राजा भगवानदास और महाराणा प्रताप की एकांत वार्ता का सार वही था जो मानसिंह के साथ उनकी बातचीत में सामने आया था। अंतर केवल इतना था कि भगवानदास बहुत विनम्रता और अपनेपन से पेश आ रहे थे।
उन्होंने महाराणा प्रताप को समझाया कि आमेर के राजवंश का अनुकरण करने में ही उनकी भलाई है। वह स्वयं अकबर से सिफारिश करेंगे कि आपको दरबार में उचित सम्मानजनक पद और उपाधि दी जाए।
मुगलों की विशाल शक्ति से लड़ाई करके छोटे से मेवाड़ के लिए विजय की आशा रखना असंभव है। जब पराधीनता निश्चित है तो व्यर्थ के रक्तपात से क्या लाभ? इससे तो मेवाड़ की प्रजा की दुर्दशा ही होनी है। अभी जो मान सम्मान आपको मिल रहा है युद्ध में पराजय के बाद उसकी आशा रखना भी व्यर्थ ही होगा। आखिरकार इन सारे तर्कों के उत्तर में महाराणा प्रताप ने सिर्फ यही कहा कि "स्वतंत्रता के बदले स्वर्ग का राज्य मिलने पर भी उसे तुच्छ कहा जाता है।"
महाराणा प्रताप के ऐसा कहते से ही भगवानदास क्रोधित हो गए और उन्होंने कहा कि मैं तो तुम्हें तुम्हारे हित के लिए ही समझा रहा था पर अगर तुम आत्महत्या का रास्ता ही अपनाना चाहते हो तो तुम्हारी इच्छा। तुम मेवाड़ के साथ अपने लिए भी विपदा मोल ले रहे हो स्वतंत्रता नहीं। भगवानदास को यह समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर मुगलों की विशाल शक्ति से टकराकर मेवाड़ स्वतंत्र कैसे रह सकता है।
राजा भगवानदास निराश होकर लौट गए परंतु अकबर ने सारा वृतांत सुनने के बाद एक अंतिम प्रयास करने की सोची।
अकबर के द्वारा महाराणा प्रताप के पास भेजा गया चौथा दूत-टोडरमल
(Fourth messenger sent by Akbar to Maharana Pratap -Todarmal)
अकबर के द्वारा संधि के लिए अंतिम प्रयास के लिए राजा टोडरमल को वार्ता चुना गया। दिसंबर 1573 में टोडरमल भी मेवाड़ के लिए रवाना हुआ हालांकि ना टोडरमल को ना हि अकबर को इस वार्ता की सफलता की कोई उम्मीद थी फिर भी नीति कुशल और व्यवहार कुशल टोडरमल को भेजकर एक और प्रयास करना अकबर ने उचित समझा। टोडरमल को भी महाराणा प्रताप से वही उत्तर मिला जो कि दूसरों को मिला था। वह किसी भी कीमत पर मेवाड़ की स्वतंत्रता के साथ समझौता करने को तैयार नहीं थे। महाराणा प्रताप इस बात से भलीभांति परिचित थे कि संधि से इनकार करने के बाद युद्ध तो होना ही है और वह युद्ध के परिणाम से भी अवगत थे।
महाराणा प्रताप को प्रारंभ से ही पता था कि किसी भी तरह की संधि वार्ता सफल नहीं हो सकती चाहे कितना ही बड़ा प्रलोभन क्यों ना हो मेवाड़ कभी पराधीनता स्वीकार नहीं करेगा। परंतु महाराणा प्रताप वार्ताओं का क्रम जारी रखना चाहते थे ताकि आने वाले युद्ध का सामना करने की यथासंभव तैयारी कर सकें। अकबर भी कोरची और मानसिंह की असफलता के बाद समझ गया था कि महाराणा प्रताप को अधीनता के लिए राजी करना असंभव है।
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RAJPUT HISTORY -EVENTS /FACTS /PERSONS