गिरी सुमेल का युद्ध (जैता कुंपा की कहानी / जैता कुंंपा का बलिदान/इतिहास) । Giri Sumel battle (war) in Hindi (Jaita Kumpa story/sacrifice/history in Hindi)
जैता-कुंपा के शौर्य और बलिदान की गाथा से पहले मालदेव राठौड़ की सुमेल- गिरी युद्ध में हार क्यों हुई इसके बारे में जानना जरूरी है तभी आप जैता और कुंपा के दुख, पीड़ा और उनके द्वारा दिखाई गई वीरता को समझ पाएंगे।
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शेरशाह के विरुद्ध मालदेव राठौड़ की हार के कारण और परिणाम
Causes and consequences of the defeat of Maldev Rathore against Sher Shah
मालदेव राठौड़ गिरी सुमेल युद्ध के समय जिस क्षेत्र में थे वह उनका अपना ही क्षेत्र था जबकि शेरशाह सूरी अनजान स्थान पर आया हुआ था। फिर भी मालदेव राठौड़ की हार क्यों हुई इसका सबसे बड़ा कारण बताया गया है मुहणोत नैणसी के द्वारा।
मुहणोत नैणसी ने बताया है कि शेरशाह सूरी ने इस युद्ध को जीतने के लिए छल कपट का सहारा लिया था। इसके लिए शेरशाह सूरी ने वीरमदेव को माध्यम बनाया। वीरमदेव मेड़ता और अजमेर के शासक थे तथा वीरमदेव पहले मालदेव राठौड़ के ही सामंत हुआ करते थे परंतु मालदेव राठौड़ और वीरमदेव के मध्य दरियाजोश नाम के हाथी को लेकर विवाद होने की वजह से मालदेव राठौड़ ने वीरमदेव से मेड़ता और अजमेर का क्षेत्र छीन लिया था।
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इस वजह से वीरमदेव सहायता के लिए शेरशाह सूरी से मिल गए थे। इसके आगे मुहणोत नैणसी कहते हैं कि शेरशाह सूरी के कहने पर वीरमदेव ने जैता और कुंपा को दो अलग अलग पत्रो के साथ 20-20 हजार रुपए की रकम पहुंचवायी।
वीरमदेव ने जैता को 20 हजार की रकम देकर उनसे तलवारे मंगवाई और कुंपा को 20 हजार देकर उनसे कंबल मंगवाए।
इसके बाद शेरशाह ने अपने कुछ गुप्तचरो और पत्रों के माध्यम से यह बात प्रसारित करवा दी कि जैता और कुंपा को शेरशाह ने अपनी ओर मिला लिया है। शक होने पर मालदेव राठौड़ ने जब जैता और कुंपा के कैंप की छानबीन करवाई तो वहां उन्हें 20 हजार की रकम मिली। इसके बाद मालदेव राठौड़ के मन में यह आशंका आ गई कि मेरे सेनानायक शेरशाह सूरी से मिल गए हैं।
इस शंका से मालदेव राठौड़ ने इस युद्ध को लड़ने का मन त्याग दिया और युद्ध से पहले ही आधी सेना लेकर युद्ध भूमि से पलायन कर गए। गिरी सुमेल से मालदेव राठौड़ जोधपुर पहुंचे और वहां की सुरक्षा व्यवस्था को मजबूत करने का काम शुरू कर दिया।
अगर मालदेव राठौड़ ने अपने सेनानायको जैता और कुंपा पर जरा सा भी विश्वास किया होता तो शेरशाह सूरी को बहुत ही आसानी से हराया जा सकता था और भारत का प्रतिनिधित्व भी मालदेव राठौड़ के द्वारा किया जा सकता था परंतु दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं हो सका। शेरशाह सूरी के हाथो मालदेव राठौड़ की हार का सबसे बड़ा परिणाम यही साबित हुआ।
गिरी सुमेल युद्ध में जैता और कुंपा की शौर्य गाथा और बलिदान की कहानी
Jaita and Kumpa bravery story in Giri Sumail war(battle)
सुमेल-गिरी का युद्ध जनवरी सन 1544 में लड़ा गया था। सुमेल नाम के स्थान पर शेरशाह सूरी के द्वारा अपना कैंप लगाया गया था और गिरी नामक स्थान पर मालदेव राठौड़ ने अपना सैनिक कैंप लगाया था इसलिए इसे सुमेल-गिरी का युद्ध कहते हैं।
जैसा कि आप जानते हैं कि इस युद्ध में मालदेव राठौड़ पराजित हो गए थे और युद्ध के शुरू होने से पहले ही अपने सेनानायको पर शंका के चलते उन्होंने युद्ध स्थल को छोड़ दिया था परंतु अभी राजपुताने के दो वीर सेनानायको जैता और कुंपा का सामना शेरशाह सुरी से होना बाकी था।
राजस्थान को वीरों की धरा ऐसे ही नहीं कहा जाता है। यह वह धरा है जहां माना जाता है
"12 बरस कुकर जीये, तेरस बरस सियार,
बरस अठारह क्षत्रिय जीये, आगे जीवन धिक्कार।।"
यह कहावत इसलिए कहीं गई क्योंकि राजपूताना के रणबांकुरे जब रण क्षेत्र में होते थे तो उनके पांव मृत्यु के आगे कभी भयभीत नहीं होते थे।
यह वह धरा है जहां के युद्ध वीरों ने अपने से 100 गुना ज्यादा बड़ी सेना के आगे भी कभी अपना मस्तक नहीं झुकाया।
गिरी सुमेल के युद्ध में जैता और कुंपा के रणकौशल के आगे शेर शाह सुरी को क्या कहना पड़ा था ये आप आगे जानेंगे।
गिरी सुमेल के युद्ध को जीतने में शेरशाह सुरी को पसीने आ गए थे। मारवाड़ की धरती पर घटी वीरता की यह महान दास्तान शुरू होती है उस पवित्र भूमि से जिसे वीरो की नगरी भी कहा जाता है।
राजपूताना के इस अदभुत शौर्य को महसूस करना है तो आपको चलना होगा पाली जिले के सुमेल और गिरी गांव जहां आज भी पत्थर बोलते सुनाई देते हैं।
यह पत्थर आज भी यहां जैता और कुंपा के साथ अन्य वीरों की समाधि के रूप में अपने आपको गौरवान्वित महसूस करते हैं।
जब दिल्ली में सूरी वंश के शेरशाह सूरी का शासन था, शेरशाह वह अफगान आक्रमणकारी था जिसने तत्कालीन मुगल बादशाह हुमायूं को खदेड़ कर दिल्ली के शासन पर कब्जा कर लिया था।
शेरशाह को पता था कि जब तक राजपूताना के शौर्य को कुचल नहीं दिया जाता तब तक दिल्ली की गद्दी को बरकरार रखना उसके बस की बात नहीं है। अपने खूनी साम्राज्य विस्तार के मंसूबे के साथ शेरशाह मेड़ता के रास्ते होता हुआ सुमेल पहुंचा।
शेरशाह का इरादा मारवाड़ फतेह करना था लेकिन शायद उसे यह पता नहीं था कि इस बार उसकी तोपों का मुकाबला राजपूताना की तलवारों से होगा।
गिरी सुमेल की धरती को भी इस बात का अहसास नहीं था कि उसे ऐसे विलक्षण युद्ध की गवाही देनी होगी जो अपने आप में अलग मायनों में अनोखा होगा।
कहने के लिए तो यह युद्ध मारवाड़ के शासक राजा मालदेव और दिल्ली के बादशाह शेरशाह सूरी की सेनाओं के मध्य लड़ा जाना था लेकिन यह युद्ध मारवाड़ की सेना ने बिना राजा के ही लड़ा था।
सन 1544 में कई महीनों तक सुमेल में डेरा डाले बैठे शेरशाह की सेना को समझ नहीं आ रहा था कि राजपूताना के वीरों का मुकाबला कैसे किया जाए।
शेरशाह के पास 80 हजार सैनिकों की सेना थी और 40 तोपे थी तो दूसरी तरफ गिरी में डेरा डाले बैठे मालदेव के पास महज 15 हजार ही सैनिक थे उसमें से भी मालदेव आधे सैनिक जैता और कुंपा पर संदेह होने के कारण अपने साथ जोधपुर वापस ले गए थे। इस प्रकार जैता और कुंपा के साथ मात्र 7 से 8 हजार ही राजपूत योद्धा थे।
4 जनवरी 1544 को मारवाड़ के शासक मालदेव ने युद्ध क्षेत्र छोड़ने का ऐलान कर दिया और सेना को वापस मारवाड़ लौटने का फरमान सुनाया गया।
जब मालदेव ने जैता और कुंपा के कैंप की तलाशी ली थी उसके बाद जैता और कुंपा को यह पता चल गया था कि मालदेव राठौड़ को उन पर संदेह है।
इस बात से जैता और कुंपा को गहरा आघात पहुंचा अतः अपने स्वाभिमान, अपनी देशभक्ति, राज्य के प्रति अपने समर्पण और मातृभूमि की रक्षा के लिए जैता और कुंपा ने युद्ध क्षेत्र नहीं छोड़ने का ऐलान करते हुए युद्ध का शंखनाद कर दिया।
मालदेव अपने 8 हजार सैनिकों के साथ जोधपुर के लिए रवाना हो गए और बाकी 7-8 हजार सैनिकों को जैता और कुंपा के साथ रहने का आदेश दिया।
रात के अंधेरे में जैता और कुंपा के साथ 8 हजार राजपूत सैनिकों ने सुमेल की तरफ कूच किया।
5 जनवरी 1544 की सुबह के समय सुमेर की धरती पर भीषण युद्ध हुआ शेरशाह सूरी को यकीन था कि उसका तोपखाना और 80 हजार सैनिक राजपूताना के 8 हजार सैनिकों को देखते ही देखते कुचल कर रख देंगे।
युद्ध भूमि में अफगान तोपों का मुकाबला राजपूतों की तलवारों से था। राजपूताना के वीर तूफान बन कर शेरशाह की सेना को वैसे ही समाप्त कर रहे थे जैसे कोई जलजला बड़े जंगल को जलाकर राख कर देता है।
सुमेल में जिस स्थान पर आज तालाब है उस स्थान पर कुछ नजर आता था तो केवल अफगान सैनिकों की लाशें या फिर खून का तालाब।
इसी बीच शेरशाह सूरी का एक अन्य सेनापति जलाल खान अपनी सहायक सेना के साथ गिरी सुमेल युद्ध भूमि में पहुंच गया। इस प्रकार मुगलों की शक्ति और बढ़ गई।
जैता और कुंपा की सेना ने शेरशाह की सेना में ऐसी तबाही मचाई कि एक वक्त ऐसा भी आया जब शेरशाह खुद अपने घोड़े की जीन कसकर युद्ध भूमि से भागने को तैयार हो गया था।
इतनी अत्यधिक सेना होने के बाद भी शेरशाह को इस युद्ध में जीतने की बहुत कम आशा थी। जब युद्ध चल रहा था तब शेरशाह नमाज पढ़ने लगा और खुदा की दुआ में लग गया जिससे उसको तथा उसके साथियों को नैतिक बल मिल सके।
इसी बीच उसके सेनापति खबास खान ने खबर दी कि जैता और कुंपा मारे गए हैं और उसकी सेना ने भयंकर नुकसान झेलकर आखिरकार जंग जीत ली है तब कहीं जाकर शेरशाह सूरी ने राहत की सांस ली।
इस प्रकार जैता और कुंपा ने अदभुत वीरता दिखाकर वीरगति को प्राप्त किया। युद्ध समाप्ति पर शेर शाह ने कहा
"एक मुट्ठी भर बाजरे के लिए वह हिंदुस्तान की बादशाह खो देता"।
शेरशाह की इस बात से पुष्टि हो जाती है कि उसने कितनी मुश्किलों के बाद इस युद्ध को जीता था।
अब आप यहां विचार करें जैता और कुंपा ने सिर्फ 8 हजार सैनिकों के साथ शेरशाह की सेना से इतनी बहादुरी से युद्ध किया तो सोचिए अगर मालदेव राठौड़ युद्धभूमि को छोड़कर नहीं जाते, अगर मालदेव राठौड शेरशाह सूरी द्वारा रचे गए इस षड्यंत्र में नहीं आते और अपने सेनानायको के प्रति विश्वास रखते तो अवश्य ही इस युद्ध में मालदेव राठौड की जीत होती और मालदेव राठौड़, शेरशाह सूरी जो कि उस समय भारत का शासक था, को पराजित करते तो मालदेव राठौड़ भारत के शासक बन सकते थे क्योंकि भारत के शासक को पराजित करने पर उन्हें भारत के शासक के समान ही सम्मान मिलता और वह आसानी से स्वयं को भारत के शासक के रूप में स्थापित कर सकते थे और पृथ्वीराज चौहान के समान ओहदा प्राप्त करके मुगलों से भारत का पीछा भी छूटा सकते थे।
जोधपुर के सेनापति जैता और कुंपा ने युद्ध में अपने 8 हजार राजपूत सैनिकों के साथ वीरगति प्राप्त करने से पहले शेरशाह सूरी की 80 हजार की सेना में से 30 हजार सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया था।
इतिहास में जैता और कुंपा की वीरता हमेशा के लिए अमर हो गई।
यह एक ऐसा युद्ध था जिसने दिल्ली ही नहीं बल्कि पूरे हिंदुस्तान में यह मुनादी करा दी थी कि संख्या बल के आधार पर राजपूतों से युद्ध जीता ही नहीं जा सकता।
जहां जैता और कुंपा जैसे राठौड़ युद्धवीर है वहां तूफानों का भी रुख मोड़ा जा सकता है।