चित्तौड़गढ़ फोर्ट का इतिहास। Chittorgarh fort history in Hindi
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चित्तौड़गढ़ फोर्ट का इतिहास (Chittorgarh fort history in Hindi) राजपूत योद्धाओं तथा वीरांगनाओं की शौर्य गाथाओं से भरा हुआ है, वहीं दूसरी ओर मुगल आक्रमणकारियो की बर्बरता की गवाही भी चित्तौड़गढ़ का दुर्ग (fort) देता है।
कौन भूल सकता है अपने सम्मान की रक्षा के लिए रानी पद्मावती द्वारा दिया गया बलिदान। आज भी रूह कांप जाती है यह सोचकर कि कैसे राजपूत वीरांगनाएं स्वयं को अग्नि कुंड को समर्पित कर देती थी।
कौन भूल सकता है रानी कर्णावती का हजारों राजपूत वीरांगनाओं के साथ जौहर।
कैसे भूल सकते है जब जयमल राठौड़, पत्ता सिसोदिया और कल्ला राठौड़ के बलिदान को, जो घायल होने के बाद भी मुगलों पर त्रिकाल बनकर टूट पड़े थे।
- चित्तौड़गढ़ का दुर्ग राजस्थान के अजमेर जिले से लगभग 235 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है जो कि राजस्थान के दक्षिण में चित्तौड़ जिले के अंतर्गत आता है।
- चित्तौड़गढ़ के दुर्ग को राजस्थान का गौरव कहा जाता है। चित्तौड़गढ़ का दुर्ग राजस्थान के सभी दुर्गों का सिरमौर है।
- चित्तौड़गढ़ दुर्ग, मेसा के पठार (Plateau of Mesa) पर बना हुआ है।
- चित्तौड़गढ़ दुर्ग को यूनेस्को द्वारा 21 जून 2013 में विश्व धरोहर (world heritage) सूची में शामिल किया गया है।
चित्तौड़गढ़ दुर्ग (Fort) का निर्माण किसने करवाया?
Who built Chittorgarh fort in Hindi?
चित्तौड़गढ़ दुर्ग के निर्माण से संबंधित जानकारी कुछ पुस्तकों में मिलती है।
- प्रथम स्त्रोत है "वीर विनोद" जिसकी रचना राजस्थान के एक प्रसिद्ध कवि श्यामल दास द्वारा गई थी, इसमें बताया गया है कि चित्तौड़गढ़ दुर्ग का निर्माण चित्रांगद मौर्य ने करवाया था।
- दूसरा स्त्रोत है मुँहणोत नैणसी द्वारा रचित "मुँहणोत नैणसी री ख्यात", इसके अनुसार चित्तौड़गढ़ दुर्ग का निर्माण चित्रंग मौर्य ने किया था।
- तीसरे स्त्रोत कुमारपाल प्रबंध में यह बताया गया है कि चित्तौड़गढ़ फोर्ट का निर्माण चित्रांग मौर्य ने करवाया था।
धीरे-धीरे यह सभी नाम विकृत होकर चित्रकूट बन गए तथा बाद में चित्रकूट से यह नाम चित्तौड़ बन गया।
चित्तौड़गढ़ फोर्ट का इतिहास । Chittorgarh fort history in Hindi
- चित्तौड़गढ़ दुर्ग के अधिकांश भाग का निर्माण वीर राजपूत योद्धा महाराणा कुंभा ने करवाया था। महाराणा कुंभा को आधुनिक चित्तौड़गढ़ दुर्ग का निर्माता कहा जाता है। महाराणा कुंभा सन् 1433 से 1468 तक मेवाड़ के शासक रहे। इसके बाद महाराणा कुंभा के पुत्र ने कटार घोंपकर इनकी हत्या कर दी थी।
- रियासत काल में चित्तौड़गढ़ दुर्ग की अपनी एक भौगोलिक विशेषता थी। दिल्ली का कोई भी शासक अगर दिल्ली से गुजरात या मालवा की ओर जाना चाहता था तो उसके रास्ते में चित्तौड़ आता था इसीलिए चित्तौड़ को मालवा का प्रवेश द्वार भी कहा जाता था।
- दिल्ली से दक्षिण भारत का रास्ता भी चित्तौड़ से होकर ही जाता था। इस प्रकार चित्तौड़गढ़ दुर्ग को मालवा के साथ साथ दक्षिण भारत का भी प्रवेश द्वार कहा जाता था।
- इसके विपरीत अगर कोई सुल्तान दक्षिण भारत से दिल्ली की ओर प्रस्थान करता था तो बीच में चित्तौड़ ही आता था।
- बप्पा रावल ने 738 में मौर्य वंश के अंतिम शासक मनमोरी को हराकर चित्तौड़गढ़ दुर्ग पर अपना अधिकार किया।
- 9वीं-10वीं शताब्दी में परमारों ने चित्तौड़गढ़ दुर्ग पर शासन किया।
- 1133 में गुजरात के सोलंकी राजा, जय सिंह (सिद्धराज) ने यशोवर्मन को हराया तथा उन्होंने परमारों से मालवा को छीन लिया। इसके परिणामस्वरूप जय सिंह ने चित्तौड़गढ़ के किले पर नियंत्रण हासिल कर लिया।
- मेवाड़ के शासक राजा सामंत सिंह ने 1174 के आसपास अजयपाल (जयसिंह के उत्तराधिकारी कुमारपाल के भतीजे) को हराकर गुहिलवंशी आधिपत्य स्थापित किया। तराइन के दूसरे युद्ध में सामंत सिंह वीरगति को प्राप्त हुए। इसके बाद राजा जैत्र सिंह ने भूताला के युद्ध को जीतने के बाद चित्तौड़ को अपनी राजधानी बनाया।
- रावल रतन सिंह ने 1303 में अलाउद्दीन खिलजी से युद्ध किया। चित्तौड़ के स्वाभिमान की रक्षा के लिए लड़ी गई पहली लड़ाई को चित्तौड़ का पहला साका नाम दिया गया। इस युद्ध में अलाउद्दीन खिलजी ने जीत हासिल की और उसने यह राज्य अपने बेटे खिज्र खान को दे दिया। अपनी वापसी पर, खिज्र खान ने चित्तौड़ का शासन कान्हदेव के भाई मालदेव को सौंप दिया।
- राणा हम्मीर, सिसोदिया वंश के संस्थापक थे, जो गुहिल राजवंश की एक शाखा है। राणा हम्मीर, बप्पा रावल के वंशज भी थे।
- राणा हम्मीर ने मालदेव से चित्तौड़गढ़ दुर्ग लेकर अपने अधीन कर लिया था। राणा हम्मीर एक दूरदर्शी और पराक्रमी व्यक्ति थे। इन्होंने कुशल प्रशासन और अपनी योग्यता के द्वारा अपने राज्य का विस्तार किया तथा 50 वर्षों तक बड़ी कुशलता से राजकाज का कार्य किया। इन्ही के प्रयासों से चित्तौड़ का प्राचीन गौरव फिर से स्थापित हो सका।
चित्तौड़गढ़ दुर्ग में होने वाले साके (जौहर+केसरिया = साका)
चित्तौड़गढ़ दुर्ग में कुल 3 साके हुए।
- पहला साका 1303 में हुआ।
- दूसरा साका 1535 में हुआ।
- तीसरा साका 1567-1568 में हुआ।
- पहले साके के दौरान चित्तौड़ के राजा, रावल रतन सिंह थे और उनकी पत्नी रानी पद्मिनी थी। इसी समय दिल्ली सल्तनत का सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी चित्तौड़ पर आक्रमण करता है।
- अलाउद्दीन खिलजी 28 जनवरी 1303 को दिल्ली से निकला तथा 26 अगस्त 1303 को उसने चित्तौड़ के दुर्ग पर अधिकार कर लिया। अपने सम्मान, स्वाभिमान और सतीत्व की रक्षा करने के लिए रानी पद्मिनी सहित अन्य राजपूत वीरांगनाओं ने स्वयं को अग्नि कुंड को समर्पित कर दिया।
- दूसरा साका 8 मार्च 1535 को हुआ। दूसरे साके के समय चित्तौड़ के शासक महाराणा विक्रमादित्य थे। विक्रमादित्य की माता का नाम कर्मावती/कर्णावती था।
- महाराणा सांगा की मृत्यु 1528 में होने के बाद उनके अल्प वयस्क पुत्र महाराणा विक्रमादित्य मेवाड़ के शासक बने।
- 1535 में गुजरात के बादशाह बहादुर शाह ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया।
- रानी कर्णावती के दोनों पुत्र उदयसिंह और विक्रमादित्य अल्पवयस्क थे तथा इसी वजह से उनकी सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए रानी कर्णावती ने दोनों को बूंदी में इनके नाना के यहां भेज दिया था।
- जब बहादुर शाह ने चित्तौड़गढ़ दुर्ग पर आक्रमण किया तो रानी कर्णावती ने चित्तौड़गढ़ दुर्ग की सुरक्षा करने का दायित्व प्रतापगढ़ के ठाकुर बाघ सिंह को सौंप दिया।
- इस युद्ध में भी राजपूत योद्धाओं ने केसरिया किया और सभी वीरांगनाओं ने रानी कर्णावती के नेतृत्व में जौहर किया।
- चित्तौड़गढ़ का तीसरा और अंतिम साका 25 फरवरी 1568 को हुआ।
- इस समय मेवाड़ के शासक महाराणा उदयसिंह थे। अकबर के द्वारा चित्तौड़गढ़ पर चढ़ाई करने की सूचना मिलते से ही चित्तौड़ के सिसोदिया सेनानायको द्वारा उदय सिंह को गोगुंदा जाने की सलाह दी गई और जब महाराणा उदय सिंह ने गोगुंदा के लिए प्रस्थान किया तो उसके पहले उन्होंने चित्तौड़ के दुर्ग की रक्षा का कार्यभार जयमल राठौड़ और पत्ता सिसोदिया को सौंपा। जब युद्ध की घड़ी आई तो जयमल राठौड़ पत्ता सिसोदिया और कल्ला राठौड़ यह तीनों अकबर की सेना पर काल बनकर टूट पड़े।
- चित्तौड़गढ़ के इस तीसरे साके में पत्ता सिसोदिया की पत्नी फूल कंवर के नेतृत्व में वीरांगनाओं ने जौहर किया तथा राजपूत योद्धाओं ने केसरिया किया। 25 फरवरी 1568 को लंबे संघर्ष के बाद अकबर की सेना का चित्तौड़गढ़ दुर्ग पर अधिकार हो गया।
चित्तौड़गढ़ फोर्ट की वास्तुकला
Architecture of Chittorgarh fort in Hindi
- चित्तौड़गढ़ का किला आकार में बहुत बड़ा है। यह लगभग 280 हेक्टेयर के क्षेत्रफल में फैला हुआ है और इसकी परिधि 13 किलोमीटर है।
- चित्तौड़गढ़ दुर्ग के आकार की तुलना बड़ी मछली से की जाती है। चित्तौड़गढ़ किले में 7 द्वार(गेट) हैं।
- पदन पोल, भैरव पोल, हनुमान पोल, गणेश पोल, जोरला पोल, लक्ष्मण पोल और राम पोल। इन सातो द्वारो का निर्माण दुर्ग की सुरक्षा सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए किया गया था। द्वारो(gates) के शीर्ष को इस प्रकार बनाया गया था कि राजपूत सैनिक दुश्मनों पर बिना किसी समस्या के तीर चला सके।
- चित्तौड़गढ़ किले के मुख्य आकर्षणों में विजय स्तंभ, कीर्ति स्तंभ, राणा कुंभा पैलेस, रानी पद्मिनी पैलेस, फतेह प्रकाश पैलेस, मीरा मंदिर शामिल हैं। चित्तौड़गढ़ किले में कई जैन और हिंदू मंदिर भी हैं। किले में कई जलाशयों का निर्माण भी करवाया गया था।
- चित्तौड़गढ़ दुर्ग परिसर में कुल 84 जल स्त्रोत होने के साक्ष्य मिले हैं, जिनमें से 22 अभी भी अस्तित्व में हैं। इन 84 जलाशयों में एक अरब गैलन पानी जमा किया जा सकता था और यह सभी जलाशय चित्तौड़गढ़ दुर्ग में लगातार चार वर्षों तक 50000 की सेना की जल की आवश्यकता पूरी करने के लिए पर्याप्त थे।
विजय स्तम्भ और कीर्ति स्तंभ
Vijay stambh and Kirti stambh in Hindi
Vijay Stambh
- यह चित्तौड़गढ़ दुर्ग में सबसे महत्वपूर्ण स्थलों में से एक है। विजय स्तंभ, जो भगवान विष्णु को समर्पित है, इसका निर्माण बहुत ही खूबसूरती के साथ किया गया था। इसे राणा कुंभा ने मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी पर अपनी जीत के उपलक्ष्य में बनवाया था। विजय स्तंभ का निर्माण सन् 1440 में शुरू हुआ था और सन् 1448 में यह बनकर तैयार हुआ था।
- सूत्रधर जैता को विजय स्तंभ का आर्किटेक्ट माना जाता है। इन्होंने ही विजय स्तंभ की इस खूबसूरत स्थापत्य कला को डिजाइन किया था।
- विजय स्तंभ राजपूतों की धार्मिक सहिष्णुता और खुले विचारों का भी प्रतिनिधित्व करता है। इसमें एक मंजिल पर जैन देवी का मंदिर है, तथा तीसरी मंजिल पर 9 बार अल्लाह शब्द खुदा हुआ है।
- नौ मंजिला विजय स्तंभ की ऊंचाई 120 फीट है तथा इसकी आधार की चौड़ाई 30 फीट है। विजय स्तंभ में कुल 157 सीढ़ियां हैं।
- कीर्ति स्तम्भ चित्तौड़गढ़ फोर्ट के परिसर में एक और आश्चर्यजनक इमारत है। इसकी ऊंचाई 75 फीट है। इसका निर्माण बगेरवाल जैन व्यापारी जीजाजी कथोड द्वारा 10 से 11 वीं शताब्दी के मध्य पहले तीर्थंकर आदिनाथ जी के सम्मान में किया गया था।
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RAJPUT HISTORY -EVENTS /FACTS /PERSONS