1567 में महाराजा उदयसिंह का चित्तौड़ त्याग करने का फैसला सही था?
Was the decision of Maharaja Udai Singh to leave Chittor in 1567 correct?
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23 अक्टूबर 1567 को अकबर ने एक बड़ी सेना लेकर जब चित्तौड़गढ़ के दुर्ग पर चढ़ाई की तो उदय सिंह को पहले ही इसकी भनक लग गई थी और वह पश्चिमी पहाड़ी प्रदेश में चले गए थे। किले की सुरक्षा के लिए उन्होंने वीर राजपूत योद्धाओं जयमल और फत्ता के नेतृत्व में 8000 राजपूतों को नियुक्त किया और आसपास का इलाका खाली करवा दिया।
कुछ लोग दूर जंगलों और पहाड़ों में चले गए। बाकी करीब 30,000 नगरवासी किले को सुरक्षित मानकर वहां आ गए। उन दिनों किला जीतने का एक पुराना आजमाया हुआ तरीका था उसकी घेराबंदी करके इंतजार करना जब किले का राशन पानी खत्म हो जाता था तो उसमें तैनात छोटी सी सेना को फाटक खोल कर खुले में शत्रु से लड़ना ही पड़ता था अकबर ने भी यही किया वह कई महीनों तक किले को घेरकर बैठा रहा पर जब उसका धैर्य जवाब देने लगा उसके बाद उसने अपने कारीगर लगाकर दुर्ग की मजबूत चारदीवारी में सुरंग बनाने और कई स्थानों पर उसे तोड़ने का काम शुरू कर दिया।
आखिरकार राजपूतों के भरसक विरोध के बावजूद किले की दीवार कई जगहों से टूट गई। अब प्रत्यक्ष युद्ध के अलावा कोई विकल्प न था। राजपूतनिया जौहर की ज्वाला में कूद गई और केसरिया बाना पहने वीर राजपूत योद्धा दुर्ग के द्वार खोलकर मुगलों की विशाल वाहिनी पर टूट पड़े।
विजयी अकबर ने जब चित्तौड़ दुर्ग के अंदर प्रवेश किया तो वहां ना उदयसिंह मिले और न ही उनका शाही खजाना। चिता की राख के अलावा अगर वहां कुछ था तो वे निस्सहाय परिवार जिन्होंने शत्रु के भय से गढ़ में शरण ली थी।
अकबर महान कहे जाने वाले इस मुगल सम्राट ने खीजकर उन सब के कत्लेआम का हुक्म जारी कर दिया। उन निहत्थो पर मुगल सैनिक टूट पड़े और देखते ही देखते वहां लाशों के ढेर लग गए राजपूतों की आन बान शान का प्रतीक चित्तौड़ अब मुगलों के कब्जे में था।
कुछ इतिहासकारों ने टिप्पणी की यह उदय सिंह की कमजोरी थी कि उन्होंने पूर्ण शक्ति लगाकर चित्तौड़ को बचाने का प्रयास करने के बजाय एक छोटी सी राजपूत सेना को वहां रक्षा के लिए छोड़ दिया और स्वयं दुर्ग से चले गए परंतु इसका दूसरा पहलू भी है जिस पर विचार न करना उदय सिंह के साथ अन्याय होगा।
चित्तौड़ के लिए लड़ी गई तीन मुख्य लड़ाइयों पर अगर हम नजर डालें तो स्पष्ट हो जाएगा कि अजेय समझे जाने वाले इस दुर्ग की रक्षा करना वास्तव में लगभग असंभव है। चित्तौड़गढ़ दुर्ग के चारों ओर का समतल भू भाग शत्रु सेना को पड़ाव डालने और घेरकर बसे रहने की पूरी सुविधा देता है।
शत्रु द्वारा किले की पूरी नाकेबंदी हो जाने से बाहर से कोई सहायता नहीं मिलती थी और अंदर रसद खत्म हो जाने पर रक्षक सेना को बाहर आकर शत्रु का सामना करना पड़ता ही था।
अलाउद्दीन खिलजी के विरुद्ध इसी तरह लड़ते हुए वीर राजपूत मारे गए और महारानी पद्मिनी सहित हजारों राजपूत रानियों ने अपने सम्मान की रक्षा के लिए अग्नि समाधि ली।
दूसरी बार जब गुजरात के बहादुर शाह ने चित्तौड़गढ़ पर आक्रमण किया तब भी इसकी पुनरावृत्ति हुई रानी कर्णावती के साथ तेरह हजार राजपूतनिया जौहर की ज्वाला में भस्म हो गई और राजपूत योद्धा शत्रु से जूझते हुए वीरगति को प्राप्त हुए।
उदयसिंह के समय यह तीसरी पुनरावृत्ति थी। पिछले कटु अनुभवों की सीख तो यही थी कि अगर दुश्मन की ताकत बहुत ज्यादा हो और प्राणपण से जूझने पर भी परिणाम मर मिटना और पराजय ही हो तो अपने जन धन के सारे संसाधन ऐसे युद्ध में नहीं झोंकने चाहिए।
महाराणा उदयसिंह ने न तो अकबर की सेना के सामने हथियार डाले ना ही उससे संधि की। उदयसिंह ने यथाशक्ति प्रतिरोध किया और जितने संसाधन बचा सकते थे उन्हें लेकर दुर्ग से सुरक्षित स्थान पर चले गए।
राणा उदय सिंह जानते थे कि एक न एक दिन चित्तौड़ जैसे असुरक्षित गढ़ से उन्हें निकलना पड़ सकता है और किसी प्रबल शत्रु के आक्रमण की स्थिति में किला राजपूतों के हाथ से निकल सकता है। अतः उन्होंने वैकल्पिक व्यवस्था के तौर पर उदयपुर बसाना आरंभ कर दिया था वहां पानी की व्यवस्था के लिए एक विशाल झील उदय सागर भी बनाई जिसके वर्षा काल में भर जाने पर साल भर पानी की जरूरत पूरी हो जाती थी। इस पलायन की योजना को कायरता कहना उचित नहीं। यह दूरदर्शिता और व्यावहारिक समझदारी ही थी।
अकबर ने चित्तौड़ में आने पर निर्दोष नागरिकों का जो अमानुषिक कत्लेआम किया उसके लिए उदय सिंह को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। कदाचित उदय सिंह को अकबर जैसे शासक से नृशंस व्यवहार की आशा न थी।