राजपूत इतिहास के दुखद पर वीरतापूर्ण जौहर और साके । Tragic Jauhar and Sakas of Rajput History in Hindi

राजपूत इतिहास के दुखद पर वीरतापूर्ण जौहर और साके । Tragic Jauhar and Sakas of Rajput History in Hindi


राजपूत इतिहास के प्रमुख जौहर और साके

(Major Jauhar and Saka of Rajput History)


Jauhar saka kesariya in rajput history hindi

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वीर भूमि राजस्थान के गौरवशाली इतिहास में “जौहर तथा साकों” का महत्वपूर्ण स्थान है। यहाँ के वीर राजपूत योद्धाओं तथा वीरांगनाओं ने पराधीनता और दुराचार को स्वीकार करने की जगह खुशी खुशी मृत्यु को स्वीकार करते हुए अपनी जान मातृभूमि पर न्यौछावर कर दी। 


राजपूत योद्धाओं और वीरांगनाओं ने जौहर व साका उसी स्थिति में किए जब उन्होंने शत्रुओ को हर प्रकार से हार मानने के लिए मजबूर कर दिया था। इसी वजह से मुगल आक्रमणकारियों को दुर्ग को घेरने के बाद भी अपनी जीत के लिए 8 से 9 महीने इंतजार करना पड़ा। 


जब भी मुगल आक्रमणकारी किसी दुर्ग को घेरते थे तो उनके पास पर्याप्त मात्रा में राशन पानी उपलब्ध होता था इसके साथ साथ बड़ी मात्रा में सेना और हथियार भी होते थे।


परंतु दूसरी तरफ दुर्ग के अंदर राजपूत योद्धाओं वीरांगनाओं के पास सीमित मात्रा में ही रसद पानी उपलब्ध होता था क्योंकि बाहर से कोई भी सामग्री अंदर नहीं जा सकती थी।


इसी वजह से एक निश्चित समय के बाद राजपूत योद्धाओं को यह निर्णय करना ही होता था कि या तो भूख से मर जाए या फिर दुश्मन को मारते हुए मरे। इसी कारण राजपूत योद्धा केसरिया करते हुए दुश्मनों पर टूट पड़ते थे और मुगल आक्रमणकारियों को अपने शौर्य की पहचान करवा कर ही वीरगति को प्राप्त होते थे।


जौहर क्या होता है-जौहर की परिभाषा

What is Jauhar in Hindi - Jauhar Definition 


युद्ध के बाद राजपूत वीरांगनाओं पर मुगल आक्रमणकारियों द्वारा किए जाने वाले अत्याचारों से बचने के लिए तथा अपनी पवित्रता कायम रखने हेतु वीरांगनाये अपने कुल की देवी-देवताओं की पूजा करने के बाद जलती अग्नि में स्वयं को समर्पित करके अपने प्राणों को आत्मसम्मान के लिए न्योछावर कर देती थी। राजपूत वीरांगनाओं के इस आत्म बलिदान को ही जौहर कहा जाता हैं।


केसरिया करना किसे कहते है?

What is the meaning of doing Kesariya 


महिलाओं के द्वारा जौहर की ज्वाला में समाने का निर्णय करते देख तथा मृत्यु निश्चित देख राजपूत पुरूष केसरिया साफा (पगड़ी) पहनने के बाद मरने और मारने के निश्चय के साथ शत्रु सेना पर टूट पड़ते थे। इसे केसरिया करना कहा जाता है। 

राजपूत योद्धाओं का केसरिया करने का मकसद यही होता था कि या तो विजय होकर वापस आएंगे या अंतिम सांस तक अपने शौर्य को दिखाते हुए आक्रमणकारियों का अधिक से अधिक विनाश करेंगे।

साका क्या होता है ?

What is Saka in Hindi


जब केसरिया और जौहर दोनों एक साथ हो तब उस घटना को साका कहा जाता है। अगर जौहर और केसरिया में से सिर्फ एक ही घटित हो तो उसे अर्द्धसाका कहा जाता है।


चित्तौड़गढ़ में होने वाले प्रमुख 3 साके


chittorgarh fort jauhar history

चित्तौड़गढ़ का पहला साका 


First Saka of Chittorgarh


चित्तौड़गढ़ का पहला जौहर सन 1303 में हुआ। यह जौहर अलाउद्दीन खिलजी के शासनकाल के दौरान हुआ था जब मेवाड़ पर रावल रतन सिंह का शासन था। 


सन 1540 ईस्वी में मलिक मुहम्मद जायसी द्वारा लिखित महाकाव्य पद्मावत के अनुसार रानी पद्मावती, जिन्हें रानी पद्मिनी भी कहा जाता है, रानी नागमती के बाद रावल रतन सिंह की दूसरी पत्नी थीं। अलाउद्दीन खिलजी चाहता था कि रानी पद्मिनी उसकी हो और इसलिए उसने धोखे से रावल रतन सिंह को कैद मे ले लिया। 


Rawal ratan singh
Rawal Ratan Singh

रानी पद्मावती, गोरा और बादल से रावल रतन सिंह को बचाने का आग्रह करती है। गोरा और बादल उन्हें छुड़ाने में कामयाब रहे लेकिन इस दौरान गोरा और बादल वीरगति को प्राप्त हुए।


पर अलाउद्दीन खिलजी का पागलपन पद्मावती के लिए बिलकुल कम नहीं हुआ और 28 जनवरी 1303 को, अलाउद्दीन ने अपनी बड़ी सेना के साथ चित्तौड़ के लिए मार्च शुरू किया।


लेकिन चित्तौड़ पहुंचने पर, अलाउद्दीन खिलजी के लिए चित्तौड़गढ़ किले को भेद पाना आसान नहीं था। इसलिए अलाउद्दीन खिलजी ने राजपूतों से आत्मसमर्पण करने की मांग की। क्रोधित रावल रतन सिंह ने आत्मसमर्पण करने से इनकार कर दिया, हालांकि उन्हें पता था कि उनकी सेना खिलजी के सामने बहुत छोटी थी। 


रावल रतन सिंह के द्वारा आत्मसमर्पण करने से इनकार करने के बाद अलाउद्दीन ने किले की चारों तरफ से घेराबंदी कर दी तथा  इसके साथ-साथ अलाउद्दीन खिलजी ने बेराच नदी के पास एक सैन्य शिविर भी स्थापित कर दिया था।


यह घेराबंदी लगभग 8 महीने तक चली जिससे पता चलता है कि खिलजी और उसकी सेना के लिए कितना मुश्किल था दुर्ग में प्रवेश करना। 


Padmavati mahal
 पद्मावती महल - यहीं पर अलाउद्दीन खिलजी ने पद्मावती की छवि को देखा था


अमीर खुसरो ने इस घेराबंदी के बारे में अपने खज़ाइन उल-फ़ुतुह में उल्लेख किया है जहाँ खुसरो कहता है कि अलाउद्दीन खिलजी की सेना के द्वारा चित्तौड़गढ़ दुर्ग पर सामने से किए गए हमले दो बार विफल हो गए थे।


इसके बाद अलाउद्दीन खिलजी ने किले को चारों तरफ से घेरने का हुक्म दिया और पथराव करने का आदेश भी दिया परंतु फिर भी अलाउद्दीन खिलजी की सेना दुर्ग के अंदर प्रवेश करने में सफल नहीं हो सकी।


लंबी खींची गई घेराबंदी के कारण किले के भीतर की सारी आपूर्ति धीरे-धीरे समाप्त हो गई। अंत में, राजा रावल रतन सिंह ने द्वार को खोलने के आदेश दिए और कहा राजपूत योद्धा घेराबंदी करने वाले सैनिकों के साथ मृत्यु तक लड़ेंगे। 


इस निर्णय को सुनते ही चित्तौड़ की महिलाओं के पास दो विकल्प थे। पहला यह कि सामूहिक रूप से जौहर कर लें या फिर शत्रु के हाथों अपमान का सामना करें।


फैसला जौहर के पक्ष में था। इस प्रकार सभी महिलाएं अपनी रानी का पीछा करते हुए आग की लपटों में कूद गईं। दूसरी तरफ वीर राजपूत सैनिको ने केसरी वस्त्र पहनकर मृत्यु तक लड़ने के लिए दुश्मन की ओर कूच किया जिसे शाका कहा जाता है।


अमीर खुसरो के अनुसार, इस युद्ध में 30,000 हिंदुओं को "सूखी घास की तरह काटा गया"।


चित्तौड़गढ़ का दूसरा साका 

Second Saka of Chittorgarh


दूसरी बार ऐसा 1535 में हुआ, जब राणा सांगा की मृत्यु होने के बाद आंबेर के युद्ध में राणा रतन सिंह भी वीरगति को प्राप्त हो गए थे इस कारण मेवाड़ थोड़ा कमज़ोर हो गया था। 


रतन सिंह के बाद उनके छोटे भाई  विक्रमादित्य गद्दी पर बैठे परंतु राज्य के शासन पर कमजोर पकड़ होने के कारण वे राज्य को नहीं संभाल पा रहे थे।


अपने राज्य का विस्तार करने के लिए सही मौका देखकर गुजरात का सुल्तान बहादुर शाह तथा दिल्ली का शासक हुमायूं दोनो की नजरे चित्तौड़गढ़ दुर्ग पर थी। 


यह बात गलत है कि कर्णावती ने हुमायूं को चित्तौड़गढ़ की रक्षा करने के लिए राखी भेजी थी बल्कि हुमायूं तो स्वयं चित्तौड़गढ़ पर कब्जा करने के लिए आ रहा था परंतु जब बहादुर शाह चित्तौड़गढ़ दुर्ग पर हमला करने के लिए हुमायूं से पहले पहुंच गया तब चित्तौड़ की तरफ आते हुए हुमायूं को ग्वालियर में कुछ मौलवियों ने रोक लिया और यह कहा कि जब एक सुल्तान काफिरों से लड़ रहा है तो दूसरे बादशाह को उसके काम में बाधा उत्पन्न करने का कोई अधिकार नहीं है।


8 मार्च 1535 जब बहादुर शाह की मुस्लिम आक्रमणकारी सेना चित्तौड़गढ़ दुर्ग के पास आ गई तब रानी कर्णावती ने मेवाड़ के लोगों से चित्तौड़ की रक्षा के लिए आने का अनुरोध किया। कुछ ही देर में सैकड़ों सामान्य लोग मुगलों से अपनी मातृभूमि और अपने स्वाभिमान की रक्षा करने के लिए चित्तौड़गढ़ दुर्ग के बाहर एकत्रित हो गए। इस हमले के समय चित्तौड़गढ़ किले की रक्षा का नेतृत्व राणा सांगा की साहसी पत्नी रानी कर्णावती और अन्य महिलाएं कर रही थी।


परन्तु दुर्भाग्य से बहादुर शाह की मुग़ल सेना अभी भी मेवाडियों की संख्या से काफी अधिक थी। 


एक अदम्य साहस तथा संघर्ष दिखाने के बाद मेवाड़ी प्रतिरोध रूमी खान के अधीन गुजराती तोपखानो के हमले से कम होता गया और एक एक करके राजपूत अपनी मातृभूमि और आत्मसम्मान के लिए अपनी जान न्योछावर करते गए। 


तोपखानों की वजह से मुग़ल चित्तौड़गढ़ किले को तोड़ने में सफल रहे। जब मुग़ल सेना चित्तौड़गढ़ के दुर्ग में प्रवेश करने की कोशिश कर रही थी तब राणा सांगा की एक अन्य पत्नी रानी जवाहिर बाई राठौर ने अपना कवच दान किया और सुल्तान की सेना के खिलाफ मेवाड़ी सैनिकों का नेतृत्व किया। 


इसके बाद मुग़ल सैनिकों का अत्यधिक संख्या में दुर्ग में प्रवेश होते देख रानी कर्णावती ने वीरांगनाओ से कहा कि हम जौहर से अपने आत्मसम्मान और नारी धर्म की रक्षा करेंगे और मातृभूमि की रक्षा के लिए हमारे वीर पुरुष केसरिया बाना पहनकर केसरिया करेंगे।


ऐसा कहते ही सब ने हर हर महादेव का उद्घोष किया इसके बाद सभी वीर राजपूत योद्धाओं ने केसरिया बाना पहना और दुर्ग के फाटक को खोल कर राणा सांगा की पत्नी रानी जवाहिर बाई राठौर के नेतृत्व में शत्रुओं पर टूट पड़े। जवाहिर बाई राठौर ने मुगल सैनिकों पर धारदार हथियारों से प्रहार किया और और मुगलों के तोपखाने को अपने कब्जे में लेने की कोशिश की परंतु दुर्भाग्यपूर्ण रूप से जवाहिर भाई राठौड़ संघर्ष करते-करते वीरगति को प्राप्त हो गई। 


उधर चित्तौड़गढ़ दुर्ग के अंदर की रानी कर्णावती सहित 13000 अन्य महिलाओं ने जौहर किया।


बहादुरशाह लंबे समय तक चित्तौड़गढ़ दुर्ग को अपने कब्जे में नहीं रख पाया और राजपूत वीरों ने बहादुर शाह के जाने के कुछ समय बाद ही दुर्ग पर पुनः कब्जा कर लिया।



चित्तौड़गढ़ का तीसरा साका 

Third Saka of Chittorgarh


चित्तौड़गढ़ में तीसरे जौहर का कारण 'अकबर' की विस्तारवादी नीति थी। अकबर मेवाड़ को जीतना चाहता था जिस पर उस समय मेवाड़ वंश के 53 वें शासक और राणा सांगा और रानी कर्णावती के चौथे पुत्र राणा उदय सिंह का शासन था।


19वीं सदी के एक लेखक थे श्यामलदास जिन्होंने राजस्थान के इतिहास और संस्कृति का विस्तृत वर्णन किया है। उनके एक लेख के अनुसार, उदय सिंह ने सामंतो की एक बैठक बुलाई जहाँ उन्होंने अकबर के संभावित आक्रमण पर चर्चा की। 


बहुत गहन परामर्श के सामंतो ने उदयसिंह को अपने राजकुमारों के साथ उदयपुर की पहाड़ियों में शरण लेने की सलाह दी।


अपनी सलाहकार परिषद की सलाह पर राणा उदय सिंह ने चित्तौड़गढ़ किले को छोड़ दिया। 


उदयसिंह ने 8000 राजपूत योद्धाओं के साथ किले की रक्षा के लिए दो बहादुर सेनापति जयमल और पत्ता को किले की सुरक्षा की जिम्मेदारी सौंपी। दूसरी ओर, अकबर ने किले की घेराबंदी करना शुरू कर दी।


राजपूत योद्धाओं ने वीरतापूर्वक लड़ाई लड़ी। इस स्थिति के दौरान, अकबर ने अजमेर में सूफी संत ख्वाजा की दरगाह पर काफिरों पर विजय प्राप्त करने के लिए ईश्वरीय सहायता के लिए प्रार्थना की। 


जयमल और पत्ता सिसोदिया ने अगले दिन जीत की कोई उम्मीद न देखते हुए जौहर का आदेश दिया और 22 फरवरी की रात को लगभग 8000 महिलाओं ने खुद को गुलामी से बचाने के लिए जौहर किया।


अगले दिन, चित्तौड़गढ़ दुर्ग के द्वार खोल दिए गए और भगवा वस्त्र पहने सभी राजपूत सैनिकों ने तुलसी के पत्तो को मुंह में रखने के बाद केसरिया किया और शत्रुओं को मारते मारते वीरगति को प्राप्त हुए। 


चित्तौड़गढ़ दुर्ग में विजय के बाद भी अकबर बहुत क्रोधित हुआ इसके पीछे दो प्रमुख कारण थे पहला कारण था कि चित्तौड़गढ़ दुर्ग की घेराबंदी करने  में बहुत ज्यादा समय लगा था और अकबर को उम्मीद थी कि कुछ ही दिनों में वो चित्तौड़गढ़ दुर्ग पर कब्जा कर लेगा।


दूसरा कारण था संख्या में कम होने के बाद भी राजपूतों द्वारा कई मुगल सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया गया था। इस पर अकबर मन ही मन बहुत क्रोधित था।


इन्ही दो कारणों से अकबर ने चित्तौड़गढ़ के 40,000 से अधिक निहत्थे पुरुषों, महिलाओं और बच्चों और वृद्धों को मारने का आदेश दिया। चित्तौड़गढ़ का तीसरा जौहर बहुत ही दर्दनाक साबित हुआ, चित्तौड़गढ़ दुर्ग के अंदर रहने वाले वीरों और वीरांगनाओं के लिए भी और चित्तौड़गढ़ की आम जनता के लिए भी।


इस जौहर ने अकबर के उदारवादी होने की छवि को हमेशा के लिए तार तार कर दिया



जैसलमेर में होने वाले प्रमुख 3 साके


जैसलमेर में कुल 3 साके हुए है। तीसरे साके को अर्ध  साका कहा जाता है क्योंकि तीसरे साके में सिर्फ केसरिया हुआ रहा जौहर नहीं।


इसमें से सिर्फ तीसरे अर्ध साके का समय ज्ञात है जो कि सन 1550 में हुआ था। पहले दो साको के निश्चित समय की जानकारी नहीं मिल पाती है।


Jaisalmer fort Jauhar



जैसलमेर का पहला साका 

First Saka of Jaisalmer


पहले शाके के समय जैसलमेर के शासक मूलराज भाटी थे और दिल्ली सल्तनत का सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी था। जैसलमेर के पहले साके का कारण जो इतिहास की पुस्तक में मिलता है उसके अनुसार 1296 में अपने चाचा जलालुद्दीन खिलजी की हत्या करने के बाद जब अलाउद्दीन खिलजी सिहासन पर बैठा तो उसने साम्राज्यवादी नीति को अपनाया।


इसी कारण अपने साम्राज्य का विस्तार करने के लिए उसने रियासतों पर हमले करना शुरू किए। इसी वजह से सन 1301 में रणथंभोर का साका हुआ।


सन 1303 में चित्तौड़गढ़ पर आक्रमण किया वहां पर साका की घटना हुई। इसके बाद सन 1308 में अलाउद्दीन खिलजी ने सिवाना पर आक्रमण किया वहां साका की घटना हुई और 1311 में जालौर पर आक्रमण किया और वहां भी साका की घटना हुई।  


इसी साम्राज्यवादी नीति के कारण अलाउद्दीन खिलजी ने जैसलमेर पर आक्रमण किया इसी कारण यहां भी साका की घटना हुई। इतिहास की कुछ पुस्तकों का अध्ययन करने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि जैसलमेर का पहला साका सन 1300 से 1311 के मध्य हुआ होगा।



जैसलमेर का दूसरा साका 

Second Saka of Jaisalmer


दूसरे साके के समय जैसलमेर के शासक रावल दूदा या दुर्जनसाल थे और दिल्ली का शासक था फिरोजशाह तुगलक। फिरोजशाह तुगलक द्वारा जैसलमेर पर आक्रमण किया गया और राजपूत योद्धा द्वारा केसरिया किया गया और वीरांगनाओं के द्वारा जौहर किया गया। इस दूसरे साके के संबंध में इतिहास की पुस्तकों में समय या कारण के बारे में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है।


जैसलमेर का तीसरा अर्द्ध साका 

Half Saka of Jaisalmer



जैसलमेर में तीसरा अर्द्ध साका सन 1550 में हुआ था। इस समय जैसलमेर के शासक रावल लूणकरण थे।


अमीर अली नाम का व्यक्ति जिसे कंधार, अफगानिस्तान से देश निकाला दिया गया था, अपनी जान बचाते बचाते जैसलमेर के महाराजा लूणकरण के पास शरण लेने के लिए पहुंचा।


लूणकरण ने अमीर अली को शरण दे दी और अपने भाई के समान रखा। धीरे धीरे अमीर अली के मन में जैसलमेर को हथियाने का लालच आने लगा। 


अपने षड्यंत्र को पूरा करने के लिए अमीर अली ने लूणकरण से कहा कि मेरी बेगमें आपकी महारानियो से मिलना चाहती है। महाराजा लूणकरण को इसमें कोई आपत्ति नहीं हुई और उन्होंने इसके लिए हामी भर दी।


इसके बाद अमीर अली ने धोखे से उसके सैनिकों को महिलाओं के वस्त्र पहनाकर दुर्ग के अंदर भेज दिया लेकिन अमीर अली के सैनिक पूर्ण रूप से दुर्ग में प्रवेश कर पाते इससे पहले ही लूणकरण को इसका आभास हो गया।


सच्चाई पता चलने के बाद लूणकरण की सेना और अमीर अली की सेना के मध्य युद्ध हुआ जिसमें लूणकरण की तो मृत्यु हो गई लेकिन फिर भी इस युद्ध में भाटियो की विजय हुई इसी कारण यहां महिलाओं के द्वारा जौहर नहीं किया गया।



राजपूत इतिहास का पहला साका - रणथंबोर का साका

First saka of Rajput history - Ranthambore saka


इतिहासकारों के अनुसार राजस्थान के  रणथम्भौर किले में 1301 ईस्वी में पहला जल जौहर हुआ था। इसे राजस्थान के इतिहास का पहला एवं एकमात्र जल जौहर भी कहा जाता हैं।


हम्मीर देव की पत्नी रानी रंगादेवी ने रणथम्भौर दुर्ग के अंदर स्थित पद्मला तालाब में कूदकर जल जौहर किया था। अलाउद्दीन खिलजी की सेना ने गुजरात विजय के बाद वहां से बहुत सा धन लूटा था।


परंतु राजस्थान के जालौर में आकर अलाउद्दीन खिलजी की सेना में लूट के माल के बंटवारे को लेकर विद्रोह हो गया था। विद्रोह करने वाले अलाउद्दीन खिलजी के एक सेनापति मोहम्मद शाह ने हमीर देव के यहां आकर शरण ली।


जब अलाउद्दीन खिलजी ने उसके सेनापति को वापस लौटाने को कहा तो हमीर देव ने मना कर दिया।इसके बाद सेनापति को वापस लेने के लिए अलाउद्दीन खिलजी ने रणथम्भौर पर आक्रमण कर दिया। 


रणथम्भौर दुर्ग को अधीन करने में अलाउद्दीन खिलजी को 11 माह का समय लग गया। 


रणथम्भौर में हमीर देव की सेनाओं की हार नजदीक देख हमीर देव की पत्नी रंगादेवी व 12 हजार अन्य राजपूत वीरांगनाओं ने अपने मान सम्मान की रक्षा के लिए यह जौहर किया।



गागरोन के प्रमुख 2 साके


गागरोंन का पहला साका 

First Saka of Gagron


गागरोन का पहला साका सन 1422 में हुआ। इस समय यहां के शासक अचलदास खींची थे। इनके शासनकाल में मांडू के बादशाह अलपखां गोरी ने आक्रमण किया। परिणाम स्वरूप अचलदास ने राजपूत योद्धाओं सहित शत्रु से लड़ते हुए वीरगति प्राप्त की तथा उसकी रानियों ने दुर्ग में जौहर किया।



गागरोंन का दूसरा साका 

Second Saka of Gagron

गागरोन का दूसरा साका 1444 ईस्वी में हुआ जब मांडू का शासक महमूद खिलजी था।



एक अनुमान के मुताबिक कम से कम 80 से 90 हजार राजपूतों ने अपने सम्मान और मातृभूमि की रक्षा के लिए जौहर और केसरिया किया था।


राजपूतों के इस बलिदान, वीरता, उनकी ताकत और उनकी बहादुरी को आज भी राजस्थान के पारंपरिक गीतों में गाया जाता है। 


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