दानवीर भामाशाह का इतिहास । भामाशाह की जीवन कहानी
Bhamashah history in Hindi- Bhamashah story in Hindi
भामाशाह का नाम संपूर्ण राजपूताने में उतनी ही श्रद्धा और आदर से लिया जाता है जितना कि महाराणा प्रताप का। भामाशाह ने ना केवल तन और मन से मातृभूमि की सेवा की परंतु जब आक्रमणकारियों से देश की धरती की रक्षा के लिए धन की आवश्यकता थी,उस मुश्किल समय में भामाशाह ने अपने सभी संसाधन महाराणा प्रताप और मेवाड़ राज्य को अर्पण कर दिए।
महाराणा प्रताप के प्रधानमंत्री वीर भामाशाह का प्रथम उल्लेख समकालीन ग्रंथ, कवि हेमरत्नसूरी द्वारा लिखित गोरा बादल की कथा और पद्मिनी चौपाई की प्रशस्ति में मिलता है। भामाशाह का जन्म 28 जून 1547 को हुआ। भामाशाह महाराणा प्रताप से 7 वर्ष छोटे थे।
भामाशाह जैन धर्मानुयायी कावेडिया गोत्र के ओसवाल महाजन थे। भामाशाह के पिता भारमल को महाराणा सांगा ने अलवर से बुलाकर अपने पुत्र विक्रमादित्य की सुरक्षा का उत्तरदायित्व देकर रणथंबोर दुर्ग की किलेदारी प्रदान की थी।
महाराणा उदय सिंह ने 1610 में भारमल को अपना सामंत बनाकर एक लाख का पट्टा भी दिया था। चित्तौड़ की तलहटी में इनकी हस्तीशाला थी और किले में महलों के सामने तोपखाने के पास इनकी बड़ी हवेली थी। इससे महाराणा उदय सिंह के काल में इस परिवार की उच्च प्रतिष्ठा एवं स्थिति का प्रमाण मिलता है।
उदयपुर में भामाशाह, गोकुल चंद्रमा जी के मंदिर के निकट रहते थे जो दीवान जी की पोल के नाम से प्रसिद्ध हुआ। महाराणा प्रताप के काल में जावर एक महत्वपूर्ण सुरक्षा स्थल माना जाता था वहां मोती बाजार के निकट भामाशाह की हवेली थी।
ऐसी मान्यता है कि जावर माता का विशाल मंदिर भी भामाशाह द्वारा निर्मित किया गया था। भामाशाह के प्रारंभिक जीवन के संबंध में कुछ ठोस तो मालूम नहीं चलता है। संभवतः महाराणा उदय सिंह द्वारा चित्तौड़ त्याग के साथ वह भी अपने परिवार के साथ पहाड़ों में चले गए होंगे। उस काल में भामाशाह ने पर्वतीय स्थल का अच्छा अनुभव प्राप्त किया होगा।
हल्दीघाटी युद्ध के प्रारंभ में महाराणा प्रताप के हरावल दस्ते ने अकबर की सेना को जो शिकस्त दी वह अभूतपूर्व थी।भामाशाह और उनके भाई हल्दीघाटी के युद्ध में भी शामिल थे। हल्दीघाटी युद्ध के पश्चात महाराणा प्रताप ने मुगल बादशाह के खिलाफ एक दीर्घकालीन कठिन पर्वतीय युद्ध का प्रारंभ किया जो कि लगभग 12 वर्षों तक अनवरत रूप से चलता रहा।
इस संघर्ष में प्रताप के अविचल सहयोगी के रुप में भामाशाह इतिहास में प्रसिद्ध हो गए। इसी संघर्ष के दौरान एक अच्छे योद्धा और रणनीतिक सलाहकार तथा कुशल प्रशासक एवं संगठक के रूप में भी उन्होंने अपनी प्रतिभा साबित की। यही कारण था कि कुछ वर्षों बाद राम महासारणी के स्थान पर महाराणा प्रताप ने भामाशाह को अपना प्रधानमंत्री नियुक्त किया।
हल्दीघाटी युद्ध के बाद चिंता में डूबे महाराणा प्रताप को चुलिया में भामाशाह के द्वारा धन की सहायता
हल्दीघाटी के भीषण युद्ध के बाद महाराणा प्रताप के पास आगे की लड़ाई लड़ने के लिए बिल्कुल संसाधन नहीं बचे थे। महाराणा प्रताप के पास अपने सैनिकों को पर्याप्त वेतन और भोजन देने के लिए धन की बहुत आवश्यकता थी परंतु कोई आशा की किरण ना देखते हुए महाराणा प्रताप गहरी चिंता में डूब गए और उन्हें यह डर सताने लगा कि कहीं मुगल उनके द्वारा जीते गए हिस्सों पर भी कब्जा ना कर ले।
महाराणा प्रताप निराशा में डूबे हुए ही थे इतने में महाराणा प्रताप के मित्र भामाशाह वहां उपस्थित हुए। महाराणा प्रताप अपने मित्र से मिलकर बहुत खुश हुए। भामाशाह अपने साथ प्रथा भील को लाए थे। भामाशाह ने प्रथा भील का परिचय कराते हुए कहा यह प्रथा भील है इसने हमारे पूर्वजों के धन और खजानो की अपनी जान की परवाह किए बिना रक्षा की है और मैं चाहता हूं कि यह धन आप को समर्पित कर दू ताकि आप इसे मातृभूमि की रक्षा के लिए प्रयोग में ले।
धन तो मैं फिर भी कमा लूंगा परंतु मैं नहीं चाहता कि मातृभूमि पर मुगलों का शासन हो इसलिए आपको कहता हूं कि आप इस धन को स्वीकार करें क्योंकि जो धन देश के लिए काम ना आए वह धन व्यर्थ है।
महाराणा प्रताप, भामाशाह और प्रताप भील की स्वामी भक्ति और देशभक्ति को देखकर गदगद हो गए उन्होंने दोनों को गले से लगा लिया। महाराणा प्रताप ने कहा कि आप जैसे सपूतों के कारण ही मेवाड़ अभी भी जिंदा है मेवाड़ की धरती, मेवाड़ के महाराणा, यहां की जनता, अपितु पूरा देश आपके इस समर्पण को याद रखेगा हमें आप दोनों पर गर्व है।
चूलिया में महाराणा प्रताप को भामाशाह ने पच्चीस लाख रुपए तथा बीस हजार अशरफिया समर्पित की थी। इस बड़ी संपत्ति से महाराणा प्रताप की पच्चीस हजार सेना का 12 वर्ष तक निर्वहन हो सकता था। आबू पर्वत पर स्थित दिलवाड़ा मन्दिर का निर्माण भी भामाशाह और उनके भाई ताराचन्द ने करवाया था।
योद्धा भी, दानवीर भी - भामाशाह
दिवेर की घाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप की सेना ने मुगल सेना को बुरी तरह पराजित किया था।
डॉक्टर कासिका रंजन ने लिखा है कि इस महत्वपूर्ण युद्ध में चुंडावत और शक्तावतो के साथ भामाशाह ने प्रमुख भूमिका अदा की थी।
खुम्मण रासो के अनुसार महाराणा अमर सिंह के काल में भामाशाह अहमदाबाद से दो करोड़ का धन लेकर आए थे।
महाराणा प्रताप के प्रधान होने के नाते उन्होंने प्रशासन की व्यवस्था सैन्य, संगठन, युद्ध नीति और आक्रमणों की योजना आदि में भामाशाह ने प्रमुख हिस्सा लिया था। इससे भामाशाह की योग्यता, कुशलता का तथा उनकी सेवाओं एवं उपलब्धियों का आभास मिलता है।
महाराणा प्रताप और भामाशाह के मध्य अकबर के द्वारा फूट डालने की साज़िश
महाराणा प्रताप के ताम्र पत्रों पर भामाशाह का उल्लेख बहुत बार मिलता है। अकबर ने अपनी फूट डालने वाली नीति के द्वारा न केवल राजपूतों को एक दूसरे के विरुद्ध करके अपने दरबार में उच्च पद मनसब आदि देकर रखा था बल्कि राजपूत राज्यों के आंतरिक प्रशासन का कार्य करने वाले अधिकारियों को भी वह मुगल दरबार में प्रतिष्ठा देता था।
भामाशाह को महाराणा प्रताप से अलग करने का बहुत प्रयत्न किया गया था। अकबर के द्वारा इस उद्देश्य से भेजे गए चतुर कूटनीतिज्ञ अब्दुर्रहीम खानखाना ने भामाशाह से मुलाकात की और उनको प्रलोभन देने की कोशिश की। यह बात उस समय की थी जब महाराणा प्रताप संकट पूर्ण आर्थिक एवं सैनिक स्थिति में जीवन और मृत्यु का संघर्ष कर रहे थे। परंतु स्वामी भक्त और देशभक्त भामाशाह अकबर का प्रलोभन कैसे स्वीकार कर सकते थे। स्वाभिमान एवं सच्चाई का संकटपूर्ण जीवन जीना उनके उज्जवल चरित्र का प्रमाण है।
भामाशाह ने महाराणा प्रताप और महाराणा अमर सिंह के राज्य काल में जिस कुशलता और राज्य भक्ति के साथ प्रधान का कार्य किया इससे भामाशाह को बहुत प्रतिष्ठा और विश्वास मिला।
भामाशाह के द्वारा मृत्यु से पहले अपनी पत्नी को मेवाड़ की संपदा की जानकारी देना
भामाशाह के लिए यह प्रसिद्ध है की मृत्यु से पहले उन्होंने अपनी पत्नी को एक बही दी थी जिसमें मेवाड़ के खजाने का लेखा-जोखा लिखा हुआ था, और पत्नी को कहा था कि संकट के समय यह बही मेवाड़ राज्य के महाराणा जो कि उस समय अमर सिंह थे, को समर्पित कर देना।
इस खजाने से महाराणा अमरसिंह का कई वर्षों तक खर्चा चलता रहा।
वीर और दानवीर भामाशाह की मृत्यु
When did Bhamashah die?
भामाशाह की मृत्यु महाराणा प्रताप से 3 वर्ष बाद सन 1600 में हुई जब वह 51 वर्ष के थे।
महाराणा प्रताप के पुत्र अमर सिंह ने गंगोदभव तीर्थ (मेवाड़ राजघराने का दाह संस्कार स्थल) मैं स्वयं के लिए निर्धारित स्थान के निकट भामाशाह का दाह संस्कार कराया और छतरी बनाने की आज्ञा दी। इस सम्मान पूर्ण कार्य द्वारा भामाशाह को उनके द्वारा मेवाड़ के लिए की गई उत्कृष्ट सेवाओं के लिए श्रद्धांजलि अर्पित की गई।
महान देश भक्त को ह्रदय से नमन
ReplyDelete