महाराणा प्रताप का इतिहास (महाराणा प्रताप की कहानी) । Maharana Pratap history in Hindi । Maharana Pratap story in Hindi
"अकबर की चढ़ाई के समय महाराणा प्रताप अपने प्राण अर्पण करने को पूर्ण रूप से तैयार थे। उनका यह दृढ़ निश्चय था कि वे अपने वंश के रक्त को विदेशियो के संसर्ग से कभी दूषित नहीं होने देंगे और उनका देश सदा स्वाधीन लोगों का निवास स्थान बना रहेगा।"
- Vincent Smith
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लगभग 500 साल पहले, अकबर ने दिल्ली के सिंहासन पर मुगल सल्तनत के शासक के रूप में गद्दी संभाली। विस्तारवाद की नीति को अपनाते हुए अकबर ने पड़ोसी राज्यों को मुगल सल्तनत के झंडे के नीचे लाने की कोशिशे शुरू की और बहुत हद तक वह इसमें सफल भी हुआ। पूर्व पर विजय प्राप्त करने के बाद अकबर ने शपथ ली कि वह अपने पश्चिम अभियान में राजपूत रियासत के ऊपर मुगल ध्वज फहराएगा।
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राजपूताने में पहली रियासत जिसने अकबर की बादशाहत स्वीकार की वह आमेर की रियासत थी।
जब बड़ी-बड़ी रियासतें स्वयं को गुलामी की बेड़ियों में बांधने में लगी हुई थी तो उस समय सिर्फ मेवाड़ ही पूर्ण स्वाभिमान के साथ पूरी दुनिया के सामने खड़ा था।
महाराणा प्रताप का जन्म
Maharana Pratap birth in Hindi
जब अकबर अपनी विस्तारवादी नीति को सफल बनाने की रणनीति पर काम कर रहा था, इस समय मेवाड़ के शासक महाराणा उदय सिंह थे जिन्हें अपने पूर्वजों की तरह किसी की भी अधीनता स्वीकार करना नामंजूर था। अकबर ने मेवाड़ से संधि करके उसे अपने अधीन करने की कोशिशें शुरू कर दी और अकबर ने उदय सिंह को संधि प्रस्ताव के लिए संदेश भिजवाना शुरू कर दिया।
इसके जवाब में महाराणा उदयसिंह ने अकबर को पत्र भिजवाया कि मेवाड़ के शासक तो सिर्फ एकलिंग जी भगवान हैं हम तो मात्र उनके ही अधीन रह सकते हैं। अकबर को महाराणा उदयसिंह से ऐसे उत्तर की आशा नहीं थी उसे लगा था कि वह अन्य रियासतों की तरह मेवाड़ को आसानी से अपने अधीन कर लेगा।
महाराणा उदयसिंह के जवाब के बाद अकबर ने मेवाड़ पर भारी दबाव बनाना शुरू कर दिया।
ऐसे ही तनाव की परिस्थितियों में दिन बीतते रहे। एक दिन 9 मई 1540 को महाराणा उदय सिंह की रानी जयवंता बाई ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम इतिहास की पुस्तकों में स्वर्णिम अक्षरों में कुछ इस प्रकार लिखा जाना था "भारत का वीर योद्धा, स्वाभिमान के प्रतीक, मुगलों के काल, राजपूत कुलभूषण, मातृभूमि प्रेमी, स्वाधीनता प्रेमी, बजरंग सी भुजाओं वाले वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप।"
उदय सिंह पुत्र को पाकर अत्यंत प्रसन्न थे। राजपूत सामंतों ने उदय सिंह जी से पूछा कुंवर जी का नाम क्या होगा , तब उदय सिंह ने धैर्य पूर्वक कहा "जिस तरह सूर्य अपनी चमक से पृथ्वी को रोशन करता है ठीक उसी तरह मेरा पुत्र अपनी वीरता और शौर्य के प्रताप से मेवाड़ धरती को अपने पूर्वजों की भांति रोशन करेगा अतः दुनिया इसे आज से कुंवर प्रताप सिंह सिसोदिया के नाम से जानेगी।"
महाराणा प्रताप का बचपन
महाराणा उदय सिंह की माता जयवंता बाई बचपन से ही भगवान कृष्ण की भक्त थी वह महाराणा प्रताप को बचपन से ही भगवान कृष्ण के द्वारा दिए गए गीता उपदेश को रोज़ सुनाती थी और अधर्म को मिटाने के लिए धर्म के पथ पर चलकर कर्म करने की शिक्षा प्रदान करती थी।
महारानी जयवंता बाई कुंवर प्रताप को यह बात बताती थी कि किस तरह उनके दादा राणा सांगा ने शरीर पर 80 घाव होने के बावजूद मुगलों को अपनी तलवार की धार से अपने पैरों पर गिरने के लिए मजबूर कर दिया था। किस तरह उनके परदादा बप्पा रावल के शौर्य के डर से 400 सालों तक कोई भी मुगल आक्रमणकारी भारत की धरती पर आंख उठाने की हिम्मत नहीं कर पाया।
जब महाराणा प्रताप शिक्षा प्राप्त करने के लिए गुरुकुल में थे तब वह सुबह के समय गुरुकुल में शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात दोपहर में भीलो की बस्तियों में जाकर तीर कमान और शस्त्र चलाने की शिक्षा प्राप्त करते थे और शाम के समय लोहारों की बस्तियों में जाकर शस्त्र बनाने की प्रक्रिया को ध्यानपूर्वक समझते थे।
महाराणा प्रताप को हथियार बनाना सीखना बहुत अच्छा लगता था। महाराणा प्रताप सामान्य जनता के बीच इस कदर घुल मिल गए थे कि उन्होंने महाराणा प्रताप को अपना भावी राजा मान लिया था। भील लोग महाराणा प्रताप को प्यार से कीका कहकर संबोधित करते थे।
कुंवर प्रताप अपने बचपन से ही साहसी और स्वाभिमानी थे। उनका शरीर अन्य बच्चों की तुलना में बहुत मजबूत था। उन्होंने 13 वर्ष की उम्र में ही अफ़गानीयों की बस्तियों पर गुलेल से हमला करना शुरू कर दिया था।
सभी को यह आभास होने लगा था कि कुंवर प्रताप के इन गुणों के कारण मेवाड़ के इतिहास को स्वर्णिम अक्षरों से लिखा जाएगा और हुआ भी यही।
महाराणा प्रताप का राजतिलक
उदय सिंह ने कई विवाह किए थे जिनसे उनको कुल 45 संताने थी।
महाराणा उदय सिंह की सबसे प्रिय रानी धीर बाई थी। इनको उदय सिंह अधिक प्रेम करते थे और ज्यादा महत्व देते थे। धीरबाई के कहने पर ही महाराणा उदय सिंह ने जगमाल को मेवाड़ का भावी राजा घोषित कर दिया था।
नियम के अनुसार जो सबसे बड़ा पुत्र होता है वही उत्तराधिकारी बनने का पात्र होता है परंतु महाराणा प्रताप को अपने पिता के निर्णय पर कोई दुख नहीं हुआ और उन्होंने इस निर्णय को सहर्ष स्वीकार किया।
परंतु राज्य की प्रजा और राजपूत सामंतो को यह निर्णय मंजूर नहीं था क्योंकि उन्हें महाराणा प्रताप की योग्यता अच्छी तरह पता थी।
धीरे धीरे महाराणा उदय सिंह का स्वास्थ्य बिगड़ने लगा और सन 1572 में उदय सिंह का स्वर्गवास हो गया। महाराणा उदय सिंह के अंतिम संस्कार में मेवाड़ की सामान्य प्रजा, मेवाड़ के सभी सामंत सरदार और महाराणा प्रताप उपस्थित थे परंतु इस दुख के समय में कुंवर जगमाल महल के अंदर राजगद्दी पर बैठने के लिए अपना राज्याभिषेक करवा रहा था।
अपने पिता महाराणा उदय सिंह के अंतिम दर्शन के लिए भी उपस्थित ना होने के कारण सभी सरदारों में क्रोध की ज्वाला भड़क उठी और उन्होंने गोगुंदा की पहाड़ियों के बीच मेवाड़ के असली और योग्य राजा श्री कुंवर प्रताप का राज्याभिषेक कर दिया।
सरदार रावत कृष्णदास चुंडावत ने एक तलवार महाराणा प्रताप की कमर में बांधी और यह घोषणा की कि आज से महाराणा प्रताप ही मेवाड़ के महाराणा है।
राजतिलक के बाद महाराणा प्रताप अपने राजपूत सामंत सरदारों के साथ कुंभलगढ़ दुर्ग की ओर रवाना हुए। महाराणा प्रताप के आने की खबर सुनकर छोटा भाई जगमाल भय के कारण अकबर की शरण में चला गया जिसके बाद 1573 में मेवाड़ की राजगद्दी पर राजपूत कुलभूषण महाराणा प्रताप का औपचारिक रूप से राजतिलक कर दिया गया।
महाराणा प्रताप के व्यक्तित्व के बारे में जानकारी
Maharana pratap personality in Hindi
आखिर महाराणा प्रताप को दुनिया ने हिंदुआ - सूरज या राजपूत कुलभूषण की संज्ञा क्यों दी?
मेवाड़ की राजगद्दी पर बैठने वाले महाराणा प्रताप अपने एक ही वार से शत्रु में भय पैदा कर देते थे। हल्दीघाटी युद्ध में महाराणा प्रताप द्वारा बहलोल खान को दो भागों में बांटना इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है।
महाराणा प्रताप भगवान शिव के परम भक्त थे। जब अन्य रियासतें मुगल सल्तनत के आगे घुटने टेक रही थी तब अकेला मेवाड़ ही अपनी स्वाधीनता के साथ मुगलों की आंखों में आंखें डाल कर स्वाभिमान के साथ खड़ा था।
महाराणा प्रताप का भाला 72 किलो का था तथा छाती के कवच का भार 81 किलो था इस तरह 208 किलो के भारी भरकम वजन के साथ जब वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप युद्ध भूमि में निकलते थे, तो दुश्मन की आंखों में घबराहट और बेचैनी देखी जा सकती थी।
सिटी पैलेस,उदयपुर में रखा हुआ महाराणा प्रताप का असली कवच
हल्दीघाटी के भीषण युद्ध में विशाल मुगल सेना को महाराणा प्रताप ने पराजित किया।
(अगर आपने भी इतिहास की पुस्तकों में यह पढ़ा है कि महाराणा प्रताप को हल्दीघाटी युद्ध में पीछे हटना पड़ा था या उनकी हार हुई थी तो आपको यह आर्टिकल जरूर पढ़ना चाहिए -
दिवेर के युद्ध में भी मुगल सेना को महाराणा प्रताप घुटनों पर ले आए। अपनी छापामार युद्ध नीति से मेवाड़ के 85% प्रतिशत भाग को फिर से मुगलों से आजाद करवा कर केसरिया ध्वज फिर से मेवाड़ पर लहरा दिया।
महाराणा प्रताप और इनके वीर राजपूत योद्धाओं ने मुगलों से कई किलो को आजाद करवाया और लगभग 36 किलो पर अपना अधिकार कर लिया और सीमित संसाधन होने के बाद भी 40 हजार मुगलों को आत्मसमर्पण करने के लिए मजबूर कर दिया।
जिनके भाले की नोक से शत्रु कांपते थे जिनकी तलवार ने कभी हार का मुंह देखा नहीं।
महाराणा प्रताप के ऐसे ही व्यक्तित्व के कारण ही उन्हें हिंदुआ सूरज और राजपूत कुलभूषण की उपाधि दी गई है।
महाराणा प्रताप द्वारा राजगद्दी संभालने के बाद की चुनौती एवं अकबर के साथ महाराणा प्रताप के तनावपूर्ण संबंध का कारण
The reason for the conflict between Maharana Pratap and Akbar
महाराणा प्रताप के राजगद्दी पर बैठने के समय मेवाड़ की आर्थिक स्थिति काफी खराब थी।
पिता उदय सिंह जी के समय मुगलों के साथ चलने वाले संघर्ष के कारण मेवाड़ की अर्थव्यवस्था बेहाल हो चुकी थी , और चित्तौड़ सहित मेवाड़ के अधिकांश भाग पर मुगल सल्तनत स्थापित हो चुकी थी।
और अकबर मेवाड़ के शेष बचे इलाकों पर भी अपना अधिकार करना चाहता था। अकबर मेवाड़ राज्य से होते हुए गुजरात राज्य तक व्यापारिक मार्ग बनाना चाहता था।
इसीलिए अकबर ने महाराणा प्रताप को प्रस्ताव दिया कि वो अकबर की अधीनता स्वीकार कर ले तथा उसे गुजरात राज्य तक व्यापारिक मार्ग का रास्ता दे।
कठिन परिस्थिति आगे देख कर महाराणा प्रताप ने राजा बनते ही अपने समस्त सामंत सरदारों को बुलाया और उनसे कहा कि
"रघु कुल का मान सदैव ऊंचा रहेगा, मेवाड़ की छाती पर लहराता मुग़ल ध्वज मेरा कलेजा चीर देता हैं, बहुत जल्द हवाओं का रुख बदलेगा और मेवाड़ पर केसरिया ध्वज बड़ी शान से लहराएगा, मेवाड़ का भविष्य ज़रूर चमकेगा, मै प्रताप यह शपथ लेता हूं।
जब तक मैं अपनी मातृभूमि मेवाड़ को पूर्ण स्वतंत्र नहीं करवा लेता तब तक शांति से नहीं बैठूंगा। राजमहल में नहीं रहूंगा, पलंग पर नहीं सोऊंगा, सोने चांदी के बर्तनों में भोजन नहीं करूंगा। मेरे वीरो अब हमारा टकराव मुगल आक्रमणकारियों से होगा जिन्हे किसी भी हालत में अपनी मातृभूमि से हमें खदेड़ना है।"
इसके बाद सभी सरदारों ने अपनी तलवार लहराई और मातृभूमि को स्वतंत्र करवाने की शपथ ली।
राजगद्दी संभालने के बाद महाराणा प्रताप द्वारा अपनी सेना को तैयार करना
मेवाड़ की राजगद्दी पर बैठने के बाद आने वाली चुनौतियों को देखकर महाराणा प्रताप ने अपनी सेना को संगठित करना शुरू कर दिया था।
महाराणा प्रताप ने भीलो को अपने साथ जोड़ने के लिए उनके गांवों का दौरा किया और उन्हें अपने साथ जोड़ना शुरू किया।
दूसरी ओर लोहार समुदाय को हथियारों को बनाने का काम सौंपा गया, सरदारों को प्राचीन युद्ध करने का अभ्यास करवाया जाने लगा। इस प्रकार महाराणा प्रताप ने कुछ ही समय के अंदर एक शक्तिशाली सेना तैयार कर ली जो मुगलों को कड़ी टक्कर देने के लिए बिल्कुल तैयार थी।
महाराणा प्रताप द्वारा सेना निर्माण की खबर को जानकर अकबर की प्रतिक्रिया
जब अकबर को अपने गुप्तचरों के द्वारा यह सूचना मिली कि महाराणा प्रताप ने अपनी एक शक्तिशाली सेना खड़ी कर ली है तो अकबर ने महाराणा प्रताप को रोकने की तैयारियां आरंभ कर दी तथा अकबर ने महाराणा प्रताप से अधीनता स्वीकार कराने के लिए अपने चार दूतो को मेवाड़ भेजा।
सबसे पहले अकबर ने अपने दरबार के सबसे चालाक दरबारी जलाल खान कोरची को महाराणा प्रताप के साथ संधि करने के लिए मेवाड़ भेजा।
महाराणा प्रताप ने जलाल खान कोरची की सभी बातें ध्यान पूर्वक सुनी परंतु महाराणा प्रताप अधीनता की बात कैसे स्वीकार कर सकते थे तो अंततः जलाल खान कोरची को खाली हाथ लौटना पड़ा।
इसके लगभग अकबर ने आमेर के राजा मानसिंह को महाराणा प्रताप के पास भेजा। इस समय महाराणा प्रताप उदयपुर किसी महत्वपूर्ण कार्य के लिए उदयपुर में थे।
महाराणा प्रताप के उदयपुर में होने की सूचना सुनकर मानसिंह सीधा उदयपुर पहुंच गया।
महाराणा प्रताप ने मान सिंह को सभी तरह का सम्मान दिया तथा मान सिंह का एक अतिथि की तरह सत्कार किया।
मान सिंह का स्वागत करने के लिए महाराणा प्रताप उदयसागर झील तक आए और इस झील के सामने एक टीले पर मानसिंह के लिए दावत का प्रबंध किया गया।
जब भोजन तैयार हो गया तो मान सिंह को आमंत्रण भेजा गया और महाराणा प्रताप ने अपने पुत्र अमर सिंह को अतिथि का ध्यान रखने का निर्देश दिया परंतु महाराणा प्रताप भोजन करने नहीं आए।
जब मानसिंह ने महाराणा प्रताप की उपस्थिति के बारे में अमर सिंह से प्रश्न किया तो अमर सिंह ने जवाब दिया कि पिताजी के पेट में दर्द है इसलिए वह नहीं आ सकेंगे।
यह सुनते से ही मानसिंह बहुत क्रोधित हो गया और बोला कि मैं उनके पेट दर्द का कारण अच्छी तरह जानता हूं ऐसा कहते हुए मानसिंह ने भोजन करने से मना कर दिया।
जब महाराणा प्रताप को यह समाचार मिला तो उन्होंने यह संदेश भिजवाया कि जो राजपूत एक तुर्क के अधीन है उसके साथ भोजन करना मेरा और मेरे राज्य मेवाड़ का अपमान है।
महाराणा प्रताप का संदेश सुनकर मान सिंह उत्तर देने की स्थिति में नहीं था क्योंकि महाराणा प्रताप ने तो मानसिंह को निमंत्रण नहीं भेजा था वह तो अकबर के कहने पर संधि की बात करने के लिए आया था।
क्रोधित मानसिंह ने इसे अपना समझकर भोजन करने से मना कर दिया और कुछ चावल के कणों को देवताओं को अर्पित करने के बाद अपने घोड़े पर बैठ गया और कहा कि दिल्ली की मुगल सल्तनत को नजरअंदाज करना एक बड़े संघर्ष को चुनौती देने के समान है। अगर आप सबकी युद्ध में जाने की ही इच्छा है तो यह अवश्य पूरी होगी। इसके बाद मान सिंह ने अपनी आंखें दिखाकर सभी राजपूत सामंतों से कहा कि मैं तुम सब का अभिमान चूर कर दूंगा।
इसका जवाब देते हुए राजपूत सामंतो ने कहा कि हम प्रतीक्षा करेंगे।
अकबर के द्वारा युद्ध का ऐलान
महाराणा प्रताप द्वारा संधि प्रस्ताव को अस्वीकार करने के बाद अकबर ने क्रोधित होकर मानसिंह को 90 हजार की विशाल मुगल सेना का सेनापति घोषित कर दिया।
3 अप्रैल 1576 को मानसिंह मुग़ल सेना के साथ मेवाड़ अभियान के लिए निकल पड़ा तथा लगभग 2 महीने चलने के बाद अंततः मानसिह खमनोर नाम के गांव में पहुंच गया।
महाराणा प्रताप को भी विशाल मुगल सेना का मेवाड़ की और बढ़ने का समाचार मिल चुका था। पहले से ही युद्ध के लिए तैयार बैठे महाराणा प्रताप ने अपनी सेना को युद्ध के लिए तैयार रहने का आदेश दिया क्योंकि वह जानते थे युद्ध तो होकर ही रहेगा।
इधर मानसिंह ने बनास नदी के पास मैदानों में अपना डेरा लगा लिया । दूसरी तरफ महाराणा प्रताप ने भी अपनी 20 हजार की सेना के साथ मुगल फौज से 6 मील की दूरी पर लोसिंग गांव में अपना पड़ाव डाल लिया।
मान सिंह के नेतृत्व वाली मुगल सेना के सामने महाराणा प्रताप की सेना में भील, पठान और वीर राजपूत योद्धा थे।
अंततः 18 जून 1576 को विश्व के सबसे भीषण युद्धों में से एक हल्दीघाटी युद्ध का प्रारंभ हुआ।
हल्दीघाटी का भीषण युद्ध
सुबह का समय था,आकाश में कुछ बादल थे जिन्होंने सूरज को ढक लिया था।
इसी बीच मुगल सेना ने आगे बढ़ना प्रारंभ कर दिया। इसके जवाब में महाराणा प्रताप ने अपने हरावल दस्ते को मुगल सेना पर टूट जाने का आदेश दिया।
महाराणा प्रताप के योद्धाओं ने मुगल सेना के तीन हरावल दस्तो को पूरी तरह से नष्ट कर दिया। यह बात स्वयं बदायूंनी ने अपनी किताब में लिखी है। बदायूंनी हल्दीघाटी युद्ध मैदान में मौजूद था। इस भयंकर हमले से घबराकर मुगल सेना का हरावल दस्ता लूणकरण के नेतृत्व में डरकर भाग निकला।
ठीक इसी समय वीर शिरोमणि, मेवाड़ मुकुट, हिंदुआ सूरज महाराणा प्रताप ने युद्ध भूमि में प्रवेश किया। महाराणा प्रताप के युद्ध भूमि में प्रवेश करते से ही उनकी सेना में और ज्यादा उत्साह का संचार हो गया दूसरी तरफ महाराणा प्रताप को देखकर मुगल सेना के सिर पर चिंता की लकीरें दिखने लगी।
मुगल सेना ने पहली बार महाराणा प्रताप को देखा था। इससे पहले उन्होंने महाराणा प्रताप का सिर्फ नाम ही सुना था। बदायूनी ने अपनी किताब में महाराणा प्रताप के संबंध में लिखा कि "महाराणा प्रताप बहुत लंबे मजबूत और शक्तिशाली थे। वे जब भी अपने हाथों में तलवार लेकर चलते थे तो ऐसा लगता था कि मानो आधी मुगल सेना को अकेले ही ले डूबेंगे, उनके चेहरे पर सदैव एक अलग तेज दिखता था।"
महाराणा प्रताप की सेना ने शुरुआत के 3 घंटों में ही मुगल सेना के हरावल दस्ते (जो सैनिक युद्ध भूमि में सबसे आगे रहते हैं उन्हें हरावल कहा जाता है) को पूरी तरह नष्ट कर दिया था।
डरी हुई मुगल सेना अपने बचाव के लिए अरावली की घाटियों की तरफ भागने लगी। सैनिकों को इस प्रकार भागते देख सेनापति मिहत्तर खान जोर जोर से चिल्लाने लगा और उत्साह दिलाने के लिए झूठी खबर फैला दी कि स्वयं अकबर विशाल सेना लेकर रणभूमि में आ रहे हैं।
यह घोषण सुनकर भागते मुगल सैनिकों में उत्साह आ गया और वो लड़ने को तैयार हो गए।
दूसरी तरफ महाराणा प्रताप की क्रोध से भरी आंखें मानसिंह को युद्ध भूमि में ढूंढ रही थी। महाराणा प्रताप के मन में यही बात चल रही थी कि एक राजपूत होकर मुगलों का साथ देकर अपनी ही मातृभूमि पर आक्रमण करने की हिम्मत मानसिंह में कैसे आ सकती है।
महाराणा प्रताप को मानसिंह कि वह बात भी याद आ रही थी जिसमें मान सिंह ने कहा था कि अगली मुलाकात युद्ध भूमि में होगी। इसी कारण महाराणा प्रताप मानसिंह को ढूंढने के लिए बेचैन थे।
अंततः महाराणा प्रताप विशाल मुगल सेना को चकमा देते हुए मानसिंह के हाथी के पास पहुंच ही गए। महाराणा प्रताप ने स्फूर्ति के साथ चेतक के पैरों को मानसिंह के हाथी के मस्तक पर टिका दिया और अपने भाले की सहायता से मानसिंह पर जोर से प्रहार किया।
परंतु मानसिंह की किस्मत अच्छी थी, महाराणा प्रताप के भाले के वार से बचने के लिए वह अपने हाथी पर लगे होंदे में छुप गया और वह बाल बाल बच गया
महाराणा प्रताप के करारे वार से मानसिंह तो बच गया परंतु उसका महावत मारा गया।
मानसिंह के हाथी की सूंड में एक तलवार लटकी हुई थी जिससे चेतक का अगला पैर कट गया। चेतक के साथ साथ महाराणा प्रताप का भी एक पैर चोटिल हो गया था और उनके शरीर पर बहुत से छोटे छोटे घाव हो गए थे जिनका महाराणा प्रताप को तनिक भी ध्यान नहीं था क्योंकि उनके दिल और दिमाग में यही बात चल रही थी कि मुगल सेना का विध्वंस कैसे करें।
तभी सादड़ी रियासत के झाला मानसिंह (जिनकी बहन का विवाह महाराणा प्रताप के साथ हुआ था) ने कहा कि आपके शरीर पर बहुत से घाव हो गए हैं और उनसे रक्त बह रहा है। इन घावों का तुरंत इलाज करना आवश्यक है। आप तुरंत वैद्य जी के पास जाएं।
परंतु महाराणा प्रताप ने युद्ध क्षेत्र से जाना नामंजूर कर दिया। तब झाला मानसिंह ने अपने हाथ जोड़कर विनती की और कहा -" हुकुम आप जीवित रहे तो मेरे जैसे सौ योद्धा तैयार हो जाएंगे परंतु आप जीवित नहीं रहे तो मेवाड़ की स्वाधीनता का सपना कभी पूरा नहीं हो पाएगा।"
महाराणा प्रताप ने गंभीरता पूर्वक झाला मानसिंह की बातें सुनी और उनकी विनती को स्वीकार किया।
इसके बाद झाला मानसिंह ने महाराणा प्रताप से मेवाड़ का राज छत्र ग्रहण किया। छत्र देने के बाद महाराणा प्रताप ने अपनी सेना को युद्ध का रुख पहाड़ों की तरफ मोड़ने का आदेश दिया। पहाड़ियों पर भीलों ने युद्ध का मोर्चा पहले ही संभाल रखा था।
आदेश देने के बाद महाराणा प्रताप चेतक के साथ अरावली पर्वतों की ओर निकल पड़े जहां चेतक ने लगभग 26 फीट की गहरी खाई को कूद कर पार किया परंतु बलीचा गांव में जैसे ही चेतक अपने स्वामी के साथ पहुंचा, घायल चेतक नीचे गिरकर बेहोश हो गया।
ठीक इसी समय महाराणा प्रताप का छोटा भाई शक्ति सिंह जो मुगल सेना की तरफ से लड़ रहा था महाराणा प्रताप का पीछा करते हुए बलीचा गांव तक आ पहुंचा।
महाराणा प्रताप बहुत दुखी होकर बेहोश चेतक को सहला रहे थे कि तभी उनकी नज़रे शक्ति सिंह पर पड़ी। शक्ति सिंह को देखकर महाराणा प्रताप ने कहा
-"सीना खुल्या मार डाला.. तुम गोद गुलामी टीकन लगे।
भारत मां ते कह दूंगा...तेरे पुत्त दामन में बिकने दामन में।"
महाराणा प्रताप के शब्दों को सुनकर शक्ति सिंह बहुत दुख हुआ और वह महाराणा प्रताप के सामने फूट-फूट कर रोने लगा और महाराणा प्रताप के पैरों में जा गिरा ।
इधर हल्दीघाटी के मैदानों में अभी भी भीषण युद्ध चल रहा था।
हल्दीघाटी के मैदान में राणा पूंजा भील और राजपूत योद्धा मुगलों को कड़ी टक्कर दे रहे थे ।
मुगल सेना का बहुत नुकसान होता देख अंततः मान सिंह ने अपनी सेना को हल्दीघाटी मैदान के दर्रो में भेजने की बजाय अजमेर की ओर प्रस्थान करने का आदेश दिया।
अकबर की विशाल, सभी तरह के साधनों से संपन्न सेना के अभिमान को महाराणा प्रताप की मेवाड़ी सेना ने मिट्टी में मिला दिया था।
हल्दीघाटी के युद्ध से खाली हाथ लौटने पर अकबर की प्रतिक्रिया
Akbar's reaction on returning empty handed from the Battle of Haldighati
जब अकबर की सेना के प्रमुख सेनापति मानसिंह और आसिफ खान पराजय के बाद खाली हाथ अकबर के सामने उपस्थित हुए तो क्रोध से भरे अकबर ने 3 महीने तक दोनों के मुगल दरबार में आने पर पाबंदी लगा दी। उनकी संपत्ति को ज़ब्त कर लिया गया और उन्हें मिलने वाले वेतन और सभी प्रकार की सुविधाओं पर रोक लगा दी।
हल्दीघाटी के भीषण युद्ध के बाद महाराणा प्रताप सेना के साथ कुंभलगढ़ दुर्ग में आ गए । विनाशकारी युद्ध के बाद पाला महाराणा प्रताप का ही भारी था परन्तु इस समय तक उनका खाजाना पूरी तरह खाली हो गया था।
हल्दीघाटी युद्ध के 4 महीने बाद ही अकबर ने एक बार फिर से शाहबाज खान के नेतृत्व में विशाल सेना को कुंभलगढ़ पर हमला करने के लिए भेज दिया।
हल्दीघाटी जैसे विनाशकारी युद्ध के बाद एक नया युद्ध लड़ना मेवाड़ की सेना के लिए आसान नहीं था। अतः महाराणा प्रताप को मज़बूरी में किले को त्याग करना पड़ा और इस प्रकार कुंभलगढ़ दुर्ग पर शाहबाज खान का अधिकार हो गया।
परंतु जिसका नाम महाराणा प्रताप हो वो ऐसे ही हार नहीं मान सकता। कुछ महीनों के बाद महाराणा प्रताप ने अपनी विशाल सेना और पूरी तैयारी के साथ शाहबाज खान पर आक्रमण करके कुंभलगढ़ दुर्ग को फिर से अपने अधिकार में ले लिया।
कुंभलगढ़ विजय के बाद महाराणा प्रताप की रणनीति एवं महाराणा प्रताप का विजय अभियान
कुंभलगढ़ पर विजय प्राप्त के पश्चात महाराणा प्रताप ने आगे की रणनीति पर विचार करने के लिए सभी राजपूत सरदारों को बुलवाया। जहां सभी सरदारों ने यह सुझाव दिया वर्तमान में हमें आगे के संघर्ष को जारी रखने के लिए धन की आवश्यकता है अतः हमें सिंध की तरफ जाना चाहिए और वहां से पर्याप्त धन एकत्रित करने के बाद पुनः विशाल सेना का निर्माण किया जाएगा और अकबर पर सीधा आक्रमण किया जाएगा।
इसी उद्देश्य से महाराणा प्रताप ने कुंभलगढ़ दुर्ग की सुरक्षा के लिए भान सोनगरा को कुंभलगढ़ का किलेदार नियुक्त किया तथा अपने सामंतों के साथ गुजरात की तरफ निकल गए।
जब महाराणा प्रताप के सिंध की ओर जाने की सूचना शाहबाज खान को लगी तो उसने दो बार महाराणा प्रताप पर आक्रमण करने की कोशिश की परंतु वह असफल रहा और उसे वापस लौटना पड़ा।
शाहबाज खान के आक्रमण को असफल करने के बाद महाराणा प्रताप गुजरात के चूलिया गांव में पहुंचे और वहां विश्राम करने के लिए डेरा लगाया। गुजरात के इसी चूलिया गांव में परम दानवीर भामाशाह ने महाराणा प्रताप को 25 लाख की सहायता प्रदान की।
इतनी बड़ी धनराशि को पाकर महाराणा प्रताप ने भामाशाह का आभार माना और उन्हें प्रेम पूर्वक गले लगा लिया।
भामाशाह द्वारा मिली सहायता से महाराणा प्रताप ने अपनी सेना को फिर से संगठित किया और मुगलों के विरूद्ध एक नए संघर्ष की शुरुआत की।
अपनी सेना को संगठित करने के बाद महाराणा प्रताप ने सन् 1582 मे मुगलों द्वारा दिवेर के दर्रो में स्थापित किए गए मुगल थानों पर भीषण आक्रमण किया।
इसी युद्ध में महाराणा प्रताप के पुत्र अमर सिंह ने अकबर के चाचा सुल्तान खान पर अपने भाले से ऐसा प्रहार किया कि सुल्तान खान अपने घोड़े सहित जमीन में जा गड़ा।
यहां पर महाराणा प्रताप का एक मानवीय रूप भी सामने आया जब दर्द से परेशान सुल्तान खान को महाराणा प्रताप ने अपने हाथो से गंगाजल पिलाया।
दिवेर के युद्ध में 36 हजार मुगल सैनिकों ने महाराणा प्रताप के सामने घुटने टेक कर आत्मसमर्पण किया था।
महाराणा प्रताप ने अंततः हल्दीघाटी के वीर योद्धाओं का बलिदान व्यर्थ नहीं जाने दिया तथा दिवेर के किले पर मुगलिया ध्वज हटाकर केसरिया ध्वज लहरा दिया।
मुगलों की दिवेर के दर्रो में हार से बौखलाकर अकबर ने सन 1584 में महाराणा प्रताप को बंदी बनाने के लिए जगन्नाथ कछवाहा को भेजा पर जगन्नाथ कछवाहा इसमें बुरी तरह असफल रहा।
असफल होने के बाद उसने महाराणा प्रताप से माफी मांगी और हर्जाने के रूप में एक किले को भेट किया।
मुगलों पर इन्हीं लगातार विजयो के बाद सन् 1585 में महाराणा प्रताप ने चावंड पर विजय प्राप्त की और उसे अपनी राजधानी बनाया। इसके बाद वीर शिरोमणि, राजपूत कुलभूषण महाराणा प्रताप ने लगातार एक के बाद एक मुगलों के 32 किलो को जीतकर उन पर केसरिया ध्वज लहरा दिया।
महाराणा प्रताप का मानसिंह से देशद्रोह का बदला लेना
मानसिंह से उसके देशद्रोह का बदला लेने के लिए महाराणा प्रताप ने अपनी विशाल सेना के साथ आमेर के मालपुरा पर आक्रमण करके मानसिंह की अकूत संपत्ति को अपने अधिकार में ले लिया।
लगातार मिलने वाली पराजयों के कारण अकबर को यह अंततः स्वीकार करना ही पड़ा कि राजपूताने के इस शेर को कोई हरा नहीं सकता।
इसके बाद अकबर ने महाराणा प्रताप को ना छेड़ने में ही अपनी भलाई समझी।
जब संघर्षों से थोड़ा आराम मिला तो महाराणा प्रताप ने मेवाड़ राज्य के विकास पर ध्यान दिया और 12 सालों तक महाराणा प्रताप ने ऐसा सुशासन किया कि मेवाड़ की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी हो गई और व्यापार फलने फूलने लगा।
महाराणा प्रताप की मृत्यु कब और कैसे हुई
How and when Maharana Pratap died
19 जनवरी 1597 को 57 वर्ष की आयु में महाराणा प्रताप शेर के शिकार पर निकले थे जहां, धनुष की प्रत्यंचा खींचते हुए राजपूत कुलभूषण देवलोक सिधार गए। वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप की देशभक्ति और अमर स्वाभिमान ने हर भारतीय के मन में उनके लिए अपार सम्मान जागृत किया। अपने अंतिम समय में भी महाराणा प्रताप को अपनी मातृभूमि की चिंता थी और महाराणा प्रताप के अंतिम शब्द यही थे कि "क्या मेरा पुत्र अमर सिंह मेवाड़ की स्वाधीनता की रक्षा कर पाएगा?" यह बात महाराणा प्रताप ने उनके सामंतों से
कहीं थी। अपनी मृत्यु से पहले महाराणा प्रताप ने 85% मेवाड़ पर पुनः अधिकार कर लिया था।
कवियों ने भी अपनी कलम से महाराणा की कीर्ति का कुछ यूं बखान किया।
धर्म रहेगा और पृथ्वी भी रहेगी पर मुगल साम्राज्य एक दिन नष्ट हो जाएगा अतः हे राणा विशंभर भगवान के भरोसे अपने निश्चय को अटल रखना ।
-अब्दुल रहीम खान- ए- खाना
जिसने अपने घोड़ों को कभी शाही सेना में भेजकर दाग नहीं लगवाया जिसने अपनी पगड़ी किसी के सामने नही झुकाई।
उनके शासनकाल में जनता को किसी से कोई भय नहीं रहा उनकी तलवार और भाला ही उसका सच्चा साथी था। वो वैदिक मार्ग के अनुयाई थे। जिसने अनेक मंदिरों का निर्माण करवाया। उनके शत्रु भी उनकी वीरता और स्वाभिमान के सामने झुक जाते थे उनकी शपथ थी प्रताप के मुख से अकबर के लिए सदैव तुर्क ही निकलेगा।
हे! राणा जब भी जब भी कलम महाराणा प्रताप लिखेगी,
तब तब तक सिर्फ महान, महान और महान ही लिखा जाएगा।।
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