हाइफा युद्ध- राजपूतों के शौर्य की अमिट कहानी । Battle of Haifa in Hindi

हाइफा युद्ध- राजपूतों के शौर्य की अमिट कहानी । Battle of Haifa in Hindi

हाइफा युद्ध । Battle of Haifa in Hindi


Battle of Haifa rajput

इजराइल देश आज भी भारत का क्यों अहसान मानता है?

इस पोस्ट में आपको दिल्ली के तीन मूर्ति चौक पर लगे तीन मूर्ति के वीरों की कहानी और उससे जुड़ी शौर्य की अद्भुत गाथा के बारे में पता चलेगा।

तीन मूर्ति के बहादुरों की कहानी इतनी बेमिसाल थी कि प्रथम विश्व युद्ध के इतिहास में हाइफा (इजरायल) की जीत को एक बहुत बड़ी जीत माना जाता है क्योंकि इस युद्ध के बिना प्रथम विश्व युद्ध जीतना नामुमकिन था।

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यह साहस से भरी हुई वो कहानी है जिसमें राजपूतों योद्धाओं ने आधुनिक मशीन गनों का सामना सिर्फ भाले और तलवार से किया था, ये अपने आप में एक अनूठी जंग थी। 

हाइफा युद्ध को विश्व की अंतिम घुड़सवारी की जंग भी कहा जाता है।

हाइफा युद्ध में जीत क्यों महत्वपूर्ण थी 
Importance of Haifa war

23 सितंबर 2021 को हाइफा की ऐतिहासिक जीत को पूरे 103 साल हो जाएंगे। यह घटना ठीक 23 सितंबर 1918 में घटी थी।

यह घटना इतनी महत्वपूर्ण क्यों है यह जानने के लिए सन 1918 में चलना पड़ेगा।

हाइफा दरअसल उत्तरी इजराइल का बंदरगाह वाला शहर है जो कि एक तरफ भूमध्य सागर से सटा है दूसरी तरफ माउंट कार्मेल पहाड़ी से।

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प्रथम विश्व युद्ध के दौरान यह युद्ध का केंद्र भी रहा। इसी शहर में Bahai (baha'i) विश्व केंद्र भी है जो यूनेस्को का एक वर्ल्ड हेरिटेज साइट भी है।

प्रथम विश्व युद्ध के समय समुद्र के पास बसे हाइफा शहर पर जर्मन और तुर्की सेना का कब्जा था।

अपने रेल नेटवर्क और बंदरगाह की वजह से हाईफा शहर रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण जगह थी क्योंकि हाइफा शहर जर्मनी और तुर्की के लिए मित्र राष्ट्रों की सेनाओं के लिए युद्ध का सामान और राशन भेजने के लिए एकमात्र समुद्र का रास्ता था।

इसके अलावा हाइफा शहर यूरोपियन देशों और Middle East के देशों के लिए connecting link था।

हाइफा को जीते बिना प्रथम विश्व युद्ध को जीतना नामुमकिन था हमारे देश में हिंदुस्तान की आजादी से पहले बड़ी संख्या में भारतीय सैनिक ब्रिटिश सेना में काम करते थे प्रथम विश्व युद्ध के समय हाईफा को तुर्की सेना से मुक्त कराने की जिम्मेदारी ब्रिटिश सेना की थी।

हाइफा का युद्ध इतना चुनौतीपूर्ण क्यों था?
Why was the Battle of Haifa so challenging?

इस जंग को अंजाम देना और दुश्मन से जीतना बिलकुल असंभव था।

क्योंकि दुश्मन सेना ज्यादा ताकतवर थी और एक तरफ kishon नदी थी तो दूसरी तरफ माउंट कार्मेल की ऊंची पहाड़ी और बीच में था संकरा रास्ता जिसे मिलिट्री भाषा में Defile (डीफाइल) भी कहते है।

किसी भी तरह का हमला इसी दर्रे से ही संभव था लेकिन यहां से हमला करने पर सैनिकों को दुश्मन सेना के द्वारा आसानी  से निशाना बनाया जा सकता था। 


Battle of Haifa map view


हाइफा पर कब्ज़ा करने का ब्रिटिश सेना का असफल प्रयास
British army's unsuccessful attempt to capture Haifa

हाइफा में तुर्की ऑस्ट्रिया और जर्मनी की संयुक्त सेना यानी ऑटोमन आर्मी की चौकिया थी। ऑटोमन आर्मी के पास बंदूक, तोप, गोला बारूद जैसी किसी भी चीज की कमी नहीं थी। 

ब्रिटिश सेना के लिए जंग करना अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने जैसा था। 21-22 सितंबर की आधी रात को 18th King George जों कि एक ब्रिटिश आर्मी की रेजिमेंट थी, इस रेजिमेंट के लांसर्स शहर के पश्चिम में स्थित एक सड़क से हाइफा पर कब्ज़ा करने के लिए आगे बढ़ रहे थे।

तभी अचानक से उन पर हाइफा की ऑटोमन बटालियन(जर्मनी और तुर्की की संयुक्त सेना) ने तोपों से हमला कर दिया।

ऑटोमन सेना ने भारी गोलीबारी कर ब्रिटिश सेना के हमले को नाकाम कर दिया। 

ब्रिटिश सेना की भारतीय शूरवीरों से मदद की गुहार

ब्रिटिश सेना के अधिकारियों को उस समय निर्भीक सैनिकों की जरूरत थी तब उन्होंने भारत की 3 रियासतों मैसूर, जोधपुर और हैदराबाद से मदद की अपील की रियासतों ने इस अपील को स्वीकार किया और अपने सैनिक जंग के लिए भेज दिए। 

हैदराबाद रियासत के सैनिक मुस्लिम थे तो उन्हें अंग्रेजों द्वारा तुर्की के खिलाफ ना लड़ा कर सैनिकों को युद्ध बंदियों के प्रबंधन और देखरेख का काम सौंपा गया। 

मैसूर और जोधपुर की घुड़सवार सैनिकों की टुकड़ियों को मिलाकर एक विशेष इकाई बनाई गई। मेजर दलपत सिंह को जोधपुर लांसर्स का नेतृत्व सौंपा गया। दोनों टुकड़ियों में अधिकतर संख्या राजपूत सैनिकों की ही थी।


Battle of Haifa dalpat singh

इस काम के लिए मेजर दलपत सिंह बहुत काबिल थे उन्हें मिलिट्री क्रॉस पदक से नवाजा गया था जो कि ब्रिटिश इंडिया में एक भारतीय अफसर के लिए यह पदक पाना एक असाधारण बात थी।

इन भारतीय सैनिकों के साथ कुछ संख्या अंग्रेज सैनिकों की भी थी।

ब्रिटिश जनरल द्वारा सैनिकों को हाइफा युद्ध से पीछे हटने का विकल्प देना

22 सितंबर को एक हवाई टोही विमान से ब्रिगेडियर ब्रिटिश जनरल एडमंड को हाईफा में  दुश्मन सैनिकों की भारी मौजूदगी के बारे में पता चला। 

उन्हें पता था कि उनकी सेना अंदर गई तो उनका लौट कर आना मुश्किल है। लड़ाई को जीतना असंभव देख उन्होंने अपनी सेना को जंग न लड़ने का कहा। अंग्रेजी सैनिक पीछे हट गए। 

भारतीय सैनिकों को भी पीछे हटने का कहा गया पर मेजर ठाकुर दलपत सिंह शेखावत के नेतृत्व में कोई भी सैनिक अपने कर्तव्य से किसी भी परिस्थिति में पीछे नहीं हटना चाहता था। 

सवाल यह था कि यदि आप पीछे हटे तो वापस जाकर आप अपने देश अपनी रियासत अपने परिवार को क्या मुंह दिखाएंगे।

और उन वीरों को शत्रु के सामने पहुंच पैर पीछे रखना मंजूर नहीं था इसलिए भारतीय सैनिकों ने हाइफा शहर में दाखिल होना स्वीकार किया।

भारतीय शूरवीरों की युद्ध रणनीति
War strategy of brave Indian soldiers

माउंट कार्मेल 1500 फुट की ऊंचाई का एक पहाड़ है जो हाईफा को चारों तरफ से घेरे हुए  है। इसकी चोटियों पर तैनात ऑटोमन सेना( जर्मनी और तुर्की की संयुक्त सेना) आधुनिक हथियारों से लैस थी।

माउंट कार्मेल पहाड़ी की तीखी ढलानों पर मशीन गनों, बंदूकों और तोपो से ऑटोमन सेना ने किले बंदी कर रखी थी।

जो कि हाईफा में प्रवेश करने वाली किसी भी सैनिक टुकड़ी को धराशाई करने के लिए तैयार बैठी थी। माउंट कार्मेल की पहाड़ियो के बीच एक संकरी घाटी है जो कि हाइफा तक पहुंचने का सबसे सीधा पर सबसे खतरनाक रास्ता था। 

दुश्मन की बंदूके इस घाटी के चप्पे-चप्पे पर तैनात थी तथा इस रास्ते से घुड़सवारो द्वारा हमला करना उस समय किसी के द्वारा भी खुदकुशी करने के बराबर ही समझा जाता। 

ठाकुर मेजर दलपत सिंह ने मैसूर लांसर्स के सैनिकों के साथ सभी खतरों को ध्यान में रखते हुए एक युद्ध रणनीति तैयार की।

इसके अनुसार सुबह 10:00 बजे मैसूर लांसर्स माउंट कार्मेल की पहाड़ी पर चढ़ाई करेंगे और वहां मौजूद गनर्स और सैनिकों का काम तमाम करेंगे।


battle of Haifa Mysore lancers


और इधर जोधपुर लांसर्स नदी पार करते हुए सीधे रास्ते से हाईफा तक पहुंच चुके होंगे। इसके बाद जोधपुर और मैसूर लांसर्स एक साथ हाइफा पर हमला करके दुश्मन को चौंका देंगे।


Haifa war jodhpur lancers


हाइफा युद्ध का निर्णायक दिन
The decisive day of battle of Haifa 

Satellite view of Haifa battle field
Satellite view of Haifa battle field


आखिरकार वो दिन आ ही गया जो इतिहास में हमेशा के लिए अमर हो गया। सुबह 5 बजे जोधपुर लांसर्स और मैसूर लांसर्स अपनी अपनी मंजिल की ओर निकले।

जोधपुर लांसर्स हाइफा से 7 km दूर Badal-Al-Sheikh नाम का एक कैंप था, इस कैंप पर पहुंचकर बेसब्री से मैसूर लांसर्स के इशारे का इंतजार करने लगे।

इधर मैसूर लांसर्स ने माउंट कार्मेल की पहाड़ियों की तरफ कूच किया जहां उन्हें दुश्मनों की बंदूकों को खामोश करना था। उन्हें यह काम दोपहर 2:00 बजे तक पूरा करना था। 

बदल-अल-शेख कैंप में जहां जोधपुर लांसर्स, मैसूर लांसर्स के इशारे का इंतजार कर रहे थे, थोड़ी बैचेनी बढ़ने लगी थी। क्योंकि 12:00 बज चुके थे पर अभी तक कोई खबर नहीं पहुंची थी।

माउंट कार्मेल की पहाड़ी पर मैसूर लांसर्स को कई मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा था। सीधी ढलान, पथरीली जमीन और लुढ़कती चट्टानों ने मैसूर लांसर्स के काम को मुश्किल बना दिया। इस वक्त तक मैसूर लांसर्स के घोड़े जवाब देने लगे थे। 


बदल - अल - शेख कैंप में अब चिंता बढ़ने लगी थी।ब्रिगेड कमांडर ने तय किया कि वह 2:00 बजे के बाद इंतज़ार बिल्कुल नही करेंगे।

अगर मैसूर लांसर्स, माउंट कार्मेल पर दुश्मन की गन पोजिशन को तय वक़्त पर खत्म नहीं कर पाए तो मिशन ना काम हो जाएगा। 

आखिरकार कुछ समय बाद मैसूर लांसर्स की ओर से जोधपुर लांसर्स को संदेश मिल ही गया और संदेश मिलते ही मेजर दलपत सिंह अपने सैनिकों के साथ युद्ध भूमि में जाने के लिए तैयार हो गए।

मेजर दलपत सिंह हाइफा की तरफ निकले और किशोन नदी के पास स्थित जंगल वाले इलाके की ओर तेजी से आगे बढ़ने लगे जो कि सीधे हाइफा तक जाता था। मेजर दलपत सिंह की योजना kishon नदी के रास्ते हाइफा पर कब्ज़ा करने की थी।

हर एक पल खतरे से भरा हुआ था। मैसूर लांसर्स ने माउंट कार्मेल पर चढ़ाई करके अधिकतर गन पोजिशन को खत्म कर दिया था और दुश्मन देश के बहुत से सैनिकों की मौत के घाट उतार दिया था।

पर दुश्मन सेना को हाइफा की ओर जाने वाले इस दर्रे की अहमियत पता थी इसीलिए इस रास्ते को उन्होंने बहुत अच्छे से कवर किया था।

इसी वजह से ऑटोमन सेना ने पहाड़ियों के बीच कुछ छुपी हुई गन पोजिशन भी बना रखी थी जो कि अभी तक मैसूर लांसर्स की नज़रों में नहीं आ पाई थी।

और ये छुपी हुई दुश्मन की गन पोजिशन मैसूर लांसर्स खत्म नहीं कर पाए थे और इन गन पोजिशनो के होते हुए जोधपुर लांसर्स नदी को कभी जिंदा पार नहीं कर पाते।

अचानक किशोन नदी के पास खड़े जोधपुर लांसर्स पर गोलियां चलने लगी। दुश्मन लगातार जोधपुर लांसर्स पर गोलियां बरसा रहे थे। नदी के रास्ते से आगे बढ़ना अब नामुमकिन था।

मेजर दलपत सिंह ने अपने सिपाहियों को नदी से बाहर निकलने का आदेश दिया पर ठीक इसी समय एक मशीन गन की गोली मेजर दलपत सिंह को लग गई और वे वही शहीद हो गए।


Battle of Haifa dalpat singh


दलपत सिंह के शहीद होने के बाद घुड़सवार सेना में जबरदस्त आक्रोश पैदा हो गया। अब सैनिकों का नेतृत्व अमान सिंह जोधा ने संभाला।



इसी बीच मैसूर लांसर्स की एक स्क्वाड्रन शेरवुड रेंजर्स ने दक्षिण की ओर माउंट कार्मेल पर चढ़ाई करके कार्मेल की ढलान पर दो नौसैनिक तोपो पर कब्जा कर लिया। 

भारतीय सैनिक घोड़े पर सवार थे उनके पास लड़ने के लिए केवल भाले और तलवारें थी। अंग्रेज सरकार ने पैदल चलने वाले सैनिकों को कुछ बंदूकें भी थमा दी थी।

आज अगर हम उस लड़ाई के मंजर की कल्पना भी करें तो यही प्रतीत होता है कि उस लड़ाई में मौत तो तय थी।  

परंतु उस दिन शायद इतिहास में एक शौर्य गाथा लिखी जानी थी। उस दिन दुनिया को राजपूत योद्धाओं का वह साहस देखना था जो इतिहास में उसके बाद कभी भी दोहराया नहीं गया। 

दो घुड़सवार नदी की जमीन दलदली होने की वजह से उसमें डूब कर शहीद हो गए। इसके बाद जोधपुर लांसर्स का नेतृत्व कर रहे अमान सिंह जोधा ने सेना का रुख माउंट कार्मेल पहाड़ी की तरफ मोड़ दिया जिससे वह अब तोपखाने और मशीन गन के सीधे निशाने पर आ गए।

अमान सिंह जोधा द्वारा अचानक सेना के साथ कार्मेल पहाड़ी पर चढ़ाई करने से तुर्की की सेना संभल नहीं पाई।

अब मैसूर लांसर्स और जोधपुर लांसर्स दोनों एक साथ कार्मेल की पहाड़ियो पर दुश्मनों पर काल बनकर टूट पड़े और कार्मेल पहाड़ पर बचे दुश्मनों और गन पोजिशन को तहस नहस कर दिया।


भारतीय सैनिकों का हाइफा में प्रवेश

Battle of haifa indian soldiers


इसके बाद भारतीय सैनिक हाइफा शहर पर धावा बोलने के लिए आगे बढ़े। हाइफा शहर की रक्षा के लिए अधिकतर तुर्की के ही सैनिक तैनात थे। 

जोधपुर लांसर्स और मैसूर लांसर्स ने अपने मेजर दलपत सिंह और 7 अन्य सैनिकों की वीरगति का बदला लेने और हाइफा को तुर्की के कब्जे से छुड़ाने के लिए अभियान शुरू किया और तुर्की के सैनिकों पर अपने भाले और तलवारों से हमला बोल दिया।

इससे पहले कि हाइफा में तैनात तुर्की के  सैनिक इस अचानक हुए हमले से सावधान हो पाते भारतीय सैनिकों ने अंग्रेजों द्वारा दी गई कुछ बंदूकों से गोलियां बरसाना भी शुरू कर दी। 

और एक-एक करके तुर्की के सैनिकों को मौत के घाट उतारना शुरू कर दिया। इसके बाद सैनिकों ने तुर्की सेना के हथियारों से ही उन पर हमला शुरू कर दिया। तुर्की के सैनिक देख कर हैरान हो गए थे कि आखिर कैसे भारतीय सैनिकों ने उनके हथियारों से ही उन्हें मारना शुरू कर दिया था।

यह दुनिया के इतिहास में घुड़सवार सेना का महान अभियान था। घोड़े घायल हो रहे थे पर रुक नहीं रहे थे भारतीय सैनिकों पर चारों तरफ से गोलीबारी शुरू हो गई। 

भारतीय सैनिक एक-एक करके शहीद होते जा रहे थे और मारते भी जा रहे थे लेकिन पीछे हटने का नाम नहीं ले रहे थे।

लंदन की घुड़सवार सेना के समर्थन से जोधपुर लांसर्स ने दोपहर 2:00 बजे के बाद शहर के बाहर से अपने बाकी घुड़सवार सैनिकों को बुलाया और इस तरह मैसूर लांसर्स को पूरे शहर पर कब्जा करने का मौका मिल गया।

दोपहर 3:00 बजे घुड़सवार सैनिकों ने तुर्की सेना की अधिकांश चौकियों को नष्ट कर दिया था और बाकी चौकियों पर कब्जा कर लिया था। लगभग 4:00 बजे तक हाइफा शहर तुर्की सेना के कब्जे से आजाद हो चुका था।

हाइफा का अहम सप्लाई बेस ब्रिटिश सेना के हाथ आ जाने के बाद कुछ ही दिन में इस बंदरगाह से सप्लाई भी शुरू हो गई।

हाइफा युद्ध के वीरों का सम्मान

आसान शब्दों में अगर हाइफा युद्ध का वर्णन करना हो तो यह युद्ध परंपरागत हथियारों से लैस सेना का मुकाबला आधुनिक हथियारों से लैस, शक्तिशाली किलेबंदी सेना से था और ये युद्ध अपने आप में इतिहास में एक अकेला ऐसा युद्ध था जिसमें घुड़सवार सेना ने किलेबंदे वाली सेना पर जीत हासिल की थी।

मात्र 2 घंटे चली इस लड़ाई में भारतीय राजपूत वीरों ने जीत दर्ज की जो अंग्रेज कई बार प्रयास करने के बाद भी नहीं कर पाए थे।

हाइफा युद्ध में भारतीय शुरवीरों ने जर्मन तुर्की सेना के 1350 कैदियों को जिंदा पकड़ा जिनमें से दो जर्मन अधिकारी, 23 ऑटोमन अधिकारी और बाकी अन्य थे।

बाकी सैकड़ों लड़ाई के दौरान मारे गए। कार्मेल पहाड़ी पर 17 आर्टिलरी गन और 11 मशीन गन कैप्चर की गई थी और हजारों की संख्या में जिंदा कारतूस भी ज़ब्त किए गए।

इस युद्ध में 8 भारतीय सैनिक शहीद हुए थे और 34 घायल हुए, वही 60 घोड़े भी मारे गए और 83 घायल हो गए थे।

भारत में इन सैनिकों की वीरता की याद में 1922 में तीन मूर्ति स्मारक बनाया गया। ठाकुर दलपत सिंह शेखावत को ब्रिटिश सरकार ने मरणोपरांत मिलिट्री क्रॉस से सम्मानित किया। 


Battle of Haifa teen Murti

इनके अलावा कैप्टन अनूप सिंह और सेकंड लेफ्टिनेंट सागत सिंह भी मिलिट्री क्रॉस पदक से सम्मानित।

ब्रिटिश हुकूमत ने कैप्टन जोर सिंह और कैप्टन बहादुर अमान सिंह जोधा को भी उनके शौर्य के लिए इंडियन ऑर्डर ऑफ मेरिट पदक से सम्मानित किया।

हाइफा,येरूशलम,रामलेह सहित इजरायल के सात शहरों में इस युद्ध से जुड़े कुछ अवशेष आज भी सही सलामत रखे गए हैं। 

इसराइल में हर साल 23 सितंबर को हाइफा दिवस मनाया जाता है। इजराइल के स्कूलों में हाइफा युद्ध और भारतीय सैनिकों की वीरता की कहानी पढ़ाई जाती है। 

जब अंग्रेज पीछे हट गए थे तब कैसे भारतीय वीरों ने अपना लहू बहा कर हाइफा को आजाद किया और 400 साल पुराने ऑटोमन साम्राज्य का अंत किया  जिसने आगे इजराइल की आजादी में मुख्य किरदार निभाया। 

इस युद्ध के बारे में हिस्ट्री ऑफ ब्रिटिश कैवेलरी में लिखा गया है-

"ये पुराने हथियारों से लैस उन दो राजपूत रेजीमेंटो का घातक हमला था जिसके खिलाफ आधुनिक हथियारो से लैस 1000 से ज्यादा की सेना थी लेकिन जोधपुर लांसर्स ने इतनी तेज रफ्तार से हमला किया कि दुश्मन को समझने का मौका ही नहीं मिला, किलेबंदी वाले किसी भी शहर पर घुड़सवार दस्ते के कब्जे की इतिहास में ये अकेली घटना है।" 

हाइफा युद्ध भारत के वीर अदम्य साहसी सैनिकों द्वारा लड़ा गया वह युद्ध है जिसे आज शायद बहुत ही कम लोग जानते है।

इतिहास के पन्नों में यह कहानी न जाने कितने सालों से धूल खा रही है युद्ध भले ही ब्रिटिश सेना ने लड़ा था मगर इसमें जीत भारतीय राजपूत सैनिकों के शौर्य ने ही दिलाई थी। उन्होंने पूरी दुनिया को दिखा दिया कि आखिर भारत के सैनिक कितने फौलादी होते हैं।

अब आपको इस बात की जानकारी हो ही गई होगी कि दिल्ली के तीन मूर्ति भवन के सामने बीच सड़क पर स्थित तीन घुड़सवारो की मूर्तियां इजरायल के शहर हाइफा को तुर्की के कब्जे से मुक्त कराने वाले भारतीय सेना के तीन घुड़सवार रेजीमेंटो का प्रतीक है। 

अभी भी हर साल 23 सितंबर को हाइफा की लड़ाई को हाईफा दिवस के रूप में याद किया जाता है। 

जो तीन मूर्ति के वीरों को भारतीय सेना की सच्ची श्रद्धांजलि है। भारत के प्रति इजराइल की जो कृतज्ञता का भाव है संभवतः इसके पीछे इन्ही महान योद्धाओं का बलिदान है।

भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने साल 2017 के अपने ऐतिहासिक तीन दिवसीय इजराइल यात्रा के दौरान इजराइल में हाइफा युद्ध के नायक दलपत सिंह शेखावत की स्मृति में दोनों राष्ट्रीय अध्यक्षों ने मिलकर एक मेमोरी प्लेट का अनावरण किया। 

उम्मीद है हमारी सरकार भी इस अविस्मरणीय जीत और शौर्य गाथा को स्कूलों की किताबों में जरूर शामिल करेगी। 

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